परमात्मा ने पेड़-पौधे, फल-फूल, नदी, वन, पर्वत, झरने और ना जाने क्या- क्या
हमारे लिए नहीं बनाया ?.....हमारे सुख के लिए, हमारे आनंद के लिए ही तो
सबकी रचना की है.....पदार्थों में समस्या नहीं है, हमारे उपयोग करने में
समस्या है……कभी-कभी विष की एक अल्प मात्रा भी दवा का काम करती है और दवा की
अत्याधिक मात्रा भी विष बन जाती है…..विवेक से, संयम से, जगत का भोग किया
जाये तो कहीं समस्या नहीं है….संसार की निंदा करने वाला अप्रत्यक्ष में
ईश्वर की ही निंदा कर रहा है....वैज्ञानिक सारे संसार के अनेक
तथ्यों को जान कर भी अज्ञानी बना रहता है...तत्वज्ञानी एक अर्थात स्वयं को
जान कर ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करता रहता है....साधना की सिद्धि
कहती है कि सात्विक तत्व के प्रति आकर्षण और हानिकारक तत्वों से
विकर्षण...और जब वैज्ञानिक तत्वज्ञानी बन जाता है....तब वह धर्म की अनुभूति
करने लगता है....तब वह संसार को सृष्टि का नाम देता है....सिर्फ एक का
उदाहरण समझ कर....इसी आधार पर श्री अल्बर्ट आइन्स्टीन ने प्रकृति को ईश्वर
मान लिया..
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