THE PRIZES ARE JUST ALONG WITH RESPECTS.....WITH DUE RESPECT....REGARDS.....
जय हो….सादर नमन....हार-जीत की बात में मजा न लेते हुए, मान-सम्मान की चर्चा जारी रखते है.....यह मानते हुए कि हार-जीत से स्नेह का क्षय हो सकता है.....वर्तमान में सम्पूर्ण राष्ट्र में "सम्मान और पुरस्कार" का आदान-प्रदान का प्रस्तुतिकरण का प्रसारण हो रहा है...चर्चा करने हेतु शब्दों का चयन करने में अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ा...उन मित्रो का सामना कैसे हो ? जो बड़े-बड़े समारोह का सामना कर चुके हो.....ससम्मान....सादर निमंत्रण के साथ.....मात्र कला के भक्त.....जिन्होंने निभाई सिर्फ और सिर्फ "भक्ति"......अर्थात वाद्य यंत्र....सीखने की ललक....प्रारंभिक स्थिति...क्या बजता है ?...कोई फर्क नहीं पड़ता...परन्तु कितनी देर बजा सकते है, मायने रखने लायक है, क्योंकि मायने बदलते रहते है....मात्र जमने का प्रयास....जड़त्व स्वयं का...स्वयं द्वारा....परन्तु एक समय बाद....कितनी देर क्या बजाते है ???....और उसके बाद मात्र क्या बजाते है ?....लय-ताल....मात्र संगम...."उस्ताद की एक झलक ही काफ़ी है"....मात्र झलक की ललक कहती है..."वाह, उस्ताद वाह"....सहज सम्मान...उपसर्ग हो या प्रत्यय....कला की समरसता....एक से अनेक की सहज यात्रा...अनेक नाम, अनेक रूप, अनेक युक्तियाँ, अनेक उपकार, अनेक शिष्य...अनेक चिंतन...अनेक चित्र....अनेक मित्र...समस्त परकोटों के मध्य लय-ताल...निम्न का परकोटा (सेवक-तुल्य) कहे "वाह"....उच्च का परकोटा (सेवा-तुल्य) कहे "वाह"....सामन्जस्य का सहज दायित्व....सहज केंद्र-बिंदु.....तब तो कहलाये "उस्ताद"....सिर्फ स्वयं का अनुभव...अपनी खुद की योग्यता के अनुसार सम्मान को स्वीकार करना....साहस का कार्य....पुरस्कार सिर्फ सम्मान का माध्यम है.....कटु-वचन के बदले में कटु-वचन सम्भव है परन्तु कटु-वचन के बदले में मधुर-वचन मात्र सम्मान हो सकता है....यही तो वह पुरस्कार है...हमेशा के लिए....भला लौटाना कैसे सम्भव है ???...और बेहद सामान्य बात, मामूली......यह सत्य-वचन समस्त निष्ठावान मित्रों का संबोधन है....और निष्ठा का निष्कर्ष सिर्फ और सिर्फ...जड़त्व...."रघुकुल रीत सदा चली आयी....प्राण जाय पर वचन न जाए"....उस्ताद के सिद्धांत...सिद्धांत से सम्मान, सम्मान से पुरस्कार, पुरस्कार से ख्याति, ख्याति से पुनरावृत्ति....सम्पूर्ण घटनाक्रम में भला अनादर की सम्भावना कहाँ ???....उस्ताद का यह अनुभव हो सकता है कि अनादर को भी स्नेह समझने का प्रयास उत्तम साहस हो सकता है....तब उस्ताद कह उठता है...."सत्यमेव जयते"....पुरस्कार में सम्मान.....न हार का डर, न जीत का लालच....बस भक्ति की ललक....ओर बन्दगी यही 'झुकती रहे पलक'....पलकों की छाँव में....पल दो पल के लिये...इस संकल्प के साथ कि प्रत्येक शब्द मात्र सकारात्मक सिद्ध हो...हमेशा-हमेशा के लिए..."जा को राखें साइयां, मार सके ना कोई"....'वाहे गुरु' को समर्पित शब्द प्रसाद के रूप में सभी मित्रो को सादर आवंटित या वितरित....ना हार का डर, ना जीत का लालच....धर्म में मात्र पीछे ना हटने का सहज प्रयास करना होता है, स्वतः आगे ले जाने का कार्य तो धर्म स्वयं ही सहज करता है...यही सामान्य बात, सामान्य रूप से कहने का प्रयास किया गया है....प्रपंच या व्यवसाय कदापि नहीं....असंभव....'गुरु दीक्षा' के प्रसाद या पुरस्कार को बेचना संभव नही है...आप महसूस कर सकते है कि प्रत्येक चर्चा में समाचार पत्रों का, पत्रिकाओं का, टेलीविजन का, राजनीति का, समाज का जिक्र सिर्फ और सिर्फ धर्म के दायरे में ही किया गया है...तथा धर्म को सम्प्रदाय से पूर्ण मुक्त रखा गया है....अर्थात चर्चा मात्र आनंद के लिए....प्रत्येक शब्द में निमंत्रण है...और प्रत्येक चित्र में चरित्र है...अर्थात..."गुरु कृपा ही केवलम्"....भले पधारो सा...हार्दिक स्वागत...MOST WELCOME...विनायक समाधान @ 91654-18344...(INDORE/UJJAIN/DEWAS)....
जय हो….सादर नमन....हार-जीत की बात में मजा न लेते हुए, मान-सम्मान की चर्चा जारी रखते है.....यह मानते हुए कि हार-जीत से स्नेह का क्षय हो सकता है.....वर्तमान में सम्पूर्ण राष्ट्र में "सम्मान और पुरस्कार" का आदान-प्रदान का प्रस्तुतिकरण का प्रसारण हो रहा है...चर्चा करने हेतु शब्दों का चयन करने में अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ा...उन मित्रो का सामना कैसे हो ? जो बड़े-बड़े समारोह का सामना कर चुके हो.....ससम्मान....सादर निमंत्रण के साथ.....मात्र कला के भक्त.....जिन्होंने निभाई सिर्फ और सिर्फ "भक्ति"......अर्थात वाद्य यंत्र....सीखने की ललक....प्रारंभिक स्थिति...क्या बजता है ?...कोई फर्क नहीं पड़ता...परन्तु कितनी देर बजा सकते है, मायने रखने लायक है, क्योंकि मायने बदलते रहते है....मात्र जमने का प्रयास....जड़त्व स्वयं का...स्वयं द्वारा....परन्तु एक समय बाद....कितनी देर क्या बजाते है ???....और उसके बाद मात्र क्या बजाते है ?....लय-ताल....मात्र संगम...."उस्ताद की एक झलक ही काफ़ी है"....मात्र झलक की ललक कहती है..."वाह, उस्ताद वाह"....सहज सम्मान...उपसर्ग हो या प्रत्यय....कला की समरसता....एक से अनेक की सहज यात्रा...अनेक नाम, अनेक रूप, अनेक युक्तियाँ, अनेक उपकार, अनेक शिष्य...अनेक चिंतन...अनेक चित्र....अनेक मित्र...समस्त परकोटों के मध्य लय-ताल...निम्न का परकोटा (सेवक-तुल्य) कहे "वाह"....उच्च का परकोटा (सेवा-तुल्य) कहे "वाह"....सामन्जस्य का सहज दायित्व....सहज केंद्र-बिंदु.....तब तो कहलाये "उस्ताद"....सिर्फ स्वयं का अनुभव...अपनी खुद की योग्यता के अनुसार सम्मान को स्वीकार करना....साहस का कार्य....पुरस्कार सिर्फ सम्मान का माध्यम है.....कटु-वचन के बदले में कटु-वचन सम्भव है परन्तु कटु-वचन के बदले में मधुर-वचन मात्र सम्मान हो सकता है....यही तो वह पुरस्कार है...हमेशा के लिए....भला लौटाना कैसे सम्भव है ???...और बेहद सामान्य बात, मामूली......यह सत्य-वचन समस्त निष्ठावान मित्रों का संबोधन है....और निष्ठा का निष्कर्ष सिर्फ और सिर्फ...जड़त्व...."रघुकुल रीत सदा चली आयी....प्राण जाय पर वचन न जाए"....उस्ताद के सिद्धांत...सिद्धांत से सम्मान, सम्मान से पुरस्कार, पुरस्कार से ख्याति, ख्याति से पुनरावृत्ति....सम्पूर्ण घटनाक्रम में भला अनादर की सम्भावना कहाँ ???....उस्ताद का यह अनुभव हो सकता है कि अनादर को भी स्नेह समझने का प्रयास उत्तम साहस हो सकता है....तब उस्ताद कह उठता है...."सत्यमेव जयते"....पुरस्कार में सम्मान.....न हार का डर, न जीत का लालच....बस भक्ति की ललक....ओर बन्दगी यही 'झुकती रहे पलक'....पलकों की छाँव में....पल दो पल के लिये...इस संकल्प के साथ कि प्रत्येक शब्द मात्र सकारात्मक सिद्ध हो...हमेशा-हमेशा के लिए..."जा को राखें साइयां, मार सके ना कोई"....'वाहे गुरु' को समर्पित शब्द प्रसाद के रूप में सभी मित्रो को सादर आवंटित या वितरित....ना हार का डर, ना जीत का लालच....धर्म में मात्र पीछे ना हटने का सहज प्रयास करना होता है, स्वतः आगे ले जाने का कार्य तो धर्म स्वयं ही सहज करता है...यही सामान्य बात, सामान्य रूप से कहने का प्रयास किया गया है....प्रपंच या व्यवसाय कदापि नहीं....असंभव....'गुरु दीक्षा' के प्रसाद या पुरस्कार को बेचना संभव नही है...आप महसूस कर सकते है कि प्रत्येक चर्चा में समाचार पत्रों का, पत्रिकाओं का, टेलीविजन का, राजनीति का, समाज का जिक्र सिर्फ और सिर्फ धर्म के दायरे में ही किया गया है...तथा धर्म को सम्प्रदाय से पूर्ण मुक्त रखा गया है....अर्थात चर्चा मात्र आनंद के लिए....प्रत्येक शब्द में निमंत्रण है...और प्रत्येक चित्र में चरित्र है...अर्थात..."गुरु कृपा ही केवलम्"....भले पधारो सा...हार्दिक स्वागत...MOST WELCOME...विनायक समाधान @ 91654-18344...(INDORE/UJJAIN/DEWAS)....
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