Sunday 25 October 2015

जय हो....परम-आनंदम....सर्वे भवन्तु सुखिनः.....राम-राम सा....भले-पधारो.....

Three Lines On A Plain Paper.....जिस प्रकार क्रिकेट के मैदान में तीन रेखायें (stumps) मुख्य केंद्र होती है....सम्पूर्ण निर्णय रेखाओं के इर्द-गिर्द....साधारण कार्य....कागज पर रेखायें खींचना....शायद सबसे आसान कार्य....और यह आसान कार्य करते हुए, हम क्या सोचते है ?....खुद हमको पता नहीं होता है !!! ....और जब हमको नहीं मालुम तो सामने वाले को कैसे मालुम हो सकता है ???....बेहद साधारण कथन या संवाद....कि....मात्र प्रयास तथा परिश्रम से पसीना आता है...फल सड़ने के बाद शराब बनाने के काम आते है....सोना तपने के बाद कुंदन बन जाता है....बिजली पहले चमकती है फिर कड़कती है....और स्मरण के पश्चात ही अनुभूति सम्भव है... फायदा तो सीधे रास्ते पर चलने से ही मिलता है... और कहते है कि 'ठोकर खा कर ठाकुर बनते है'...आदमी को दुःख में सारे सुख याद आते रहते है.....'फकीरा चल-चला-चल'....संघर्ष में ही हिम्मत आती है या हिम्मत की आवश्यकता होती है....कब ? क्यों ? कैसे ?... इत्यादि प्रश्नों के उत्तर पहले से मालुम होना सम्भव नहीं...किसी भी उत्तर में गणना का परिश्रम अनिवार्य है....और गणना ही सहज चरितार्थ करती है....'होनहार बीरबान के होत चिकने पात'......और आमने-सामने अर्थात एक से भले दो.....किसी एक समीकरण को हल करने के लिए दो मित्र पर्याप्त माने जा सकते है...साझा अध्ययन...COMBINED STUDY…..कोई पहेली नहीं....रचना हमारी खुद की, स्वयं द्वारा रचित....छोटी-बड़ी...आड़ी-तिरछी....सीधी-सादी...मोटी-पतली....भले ही कैसी भी हो....है तो स्व-रचित....कोई प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा नहीं....कोई हार या जीत नहीं.....सुना है कुछ लोग अपनी लकीर को बड़ी करने के लिए, दूसरों की लकीरों को अकसर मिटा कर या घटा कर छोटी कर देते है....तब वें यह भूल जाते है कि मजा तो सिर्फ अपनी लकीर बड़ी करने में है...और यह मजा मात्र सरल या आसान होने के कारण है....जितना वक्त लकीर मिटाने में लगता है, उससे कंही कम वक्त लकीर बनाने में लगता है....शायद इसीलिए प्रकृति-प्रदत्त....सहज हस्त-रेखायें....प्रत्येक मानव-हस्त पर नैसर्गिक रचना....विधाता का सहज ‘लेख’....शायद आज-तक कोई न निकल सका....’मीन-मेख’....और अन्त तक विधाता यही कहे...’देख तमाशा देख’....और चिंता की कोई बात नहीं....सब ईश्वरीय ‘देख-रेख....We Demand….क्षमा, रक्षा, न्याय, व्यवस्था....’जाको राखे साईयाँ, मार सके ना कोय’....
.....दो लोग जब किसी टूटी हुई चीज को देखते है तो वे पहले प्रथम दो होते है जो उस चीज को सर्व-प्रथम जोड़ सकते है...विचार-विमर्श...माला टूटने पर, माला के मोती बिखर जाते है.....सब-कुछ टूटे पर ‘संस्कारों की माला’ टूटने न पाए....शब्द बिखरे मोती होते है परन्तु मन्त्र के रूप में माला बन जाते है....किसी भी टूटी चीज का कोई भी उपयोग विचाराधीन माना जा सकता है...शायद इसलिये कि उसमे ज्यादा परिश्रम लगता होगा !!! .....आविष्कार तो आवश्यकता पर निर्भर है.... परन्तु जोड़ने का काम तो प्रार्थना या निवेदन से ही संभव है.....बात बेहद साधारण है...मगर समझने के लिये.....मस्तिष्क को सहज परिश्रम करना पड़ सकता है....उच्च, समकक्ष या मध्यम....मन की बात मन ही जाने....
.......'गणनाये' सिर्फ सत्य के निकट या निकटतम होती है....मात्र मित्र....प्रतियोगिता में सहभागी...प्रतिद्वन्दी कदापि नहीं...'सेर को सवा सेर' मिल ही जाते है परन्तु मन तो स्वतः 'सवा-मन' हो जाता है...शायद इसीलिए मन को काबू में रखा जाता है...यह सार्थक करने के लिए...."मन चंगा तो कठौती में गंगा"....सादर नमन....जय हो....हार्दिक स्वागत....जय-गुरुवर....प्रणाम...इस 'प्रण' के साथ कि 'प्रमाण' में 'प्राण' बसे...Just Because Of You...."अणु में अवशेष"....जय हो..."विनायक समाधान"...@...91654-18344....Just An idea.....To Feel Or Fill.....With Faith....Just For Prayer..... Just for Experience....INDORE / UJJAIN / DEWAS...








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