Thursday 22 October 2015

with best regards.......

शत-प्रतिशत 'Tension-Free'....सिर्फ कुछ समय मात्र ‘पांच मिनट’...कहावत है कि 'कर्ज लेकर भी घी खाना चाहिये'....और धन होते हुये भी इस बात का पालन नहीं हो पाता है...और हर नशे ले उत्पाद पर लिखा होता है...'सावधान'....परन्तु मात्र 'विश्राम' के लिये विष-पान का प्रचलन आम होता जा रहा है.....यदि बात विश्राम को होती है तो बात "संतुष्टि" की भी होना आवश्यक है...जिस प्रकार मन सत्य को भली-भांति पहचानता है उसी प्रकार मन की संतुष्टि भी महत्वपूर्ण है...'मन ही जाने, क्या है संतुष्टि' ?....आखिरकार 'मन ही मन में लड्डू'....हर कोई खाना चाहे....Tension Free Mind....तनाव मुक्त मस्तिष्क...Sound Mind in a Sound Body...संतुष्टि अर्थात मन में तृप्ति का अहसास...कब ? क्यों ? कैसे ?....हम स्वयं भली-भांति जानते है....
….तनाव तो यत्र-तत्र-सर्वत्र हो सकता है परन्तु संतुष्टि मात्र 'अनुभव' का उत्पादन हो सकता है...इसे स्वयं को आगाह करने के लिए चेतावनी भी मान सकते है कि मात्र 'संतुष्टि' के अभाव में प्रतिदिन के अनेक 'महत्वपूर्ण' कार्य प्रभावित हो सकते है...तब संतुष्टि का अनुभव सबसे महत्वपूर्ण कार्य हो जाता है...और यह शत-प्रतिशत याद रहे कि किसी भी प्रकार की संतुष्टि तब तक स्थायी नहीं हो सकती है...जब तक उसमे सात्विकता का समावेश न हो...Tension (तनाव) है कि Free(निशुल्क) में दूर नहीं होता....और लिख दिया जाता है कि--"Tension-Free"....'ग़जब का विरोधाभास'....
….और संतुष्टि है कि सम्पूर्ण बाजार में या तो मिलती नहीं, मिलती है तो अपर्याप्त...और लिख दिया जाता है कि "नक्कालो से सावधान"...या 'ग्यारंटी'....या 'भूल-चुक, लेनी-देनी'....कोई भी स्वयं को, अर्थात मन को, अर्थात मस्तिष्क को "गुरु" मानने को तैयार नहीं...आत्म-सम्मान त्याग कर किसी का भी सम्मान भला कैसे सम्भव है ?....और दावा-प्रस्तुति यह कि--"काली कम्बली पर चडे न दूजो रंग'...और अंत में सार यही...निष्कर्ष या शर्त यही कि संतुष्टि आसानी से अनुभव हो...यही अहो-भाग्य...सहज और साधारण नियम या उपाय या परामर्श..."कर भला तो हो भला"...और..."अति सर्वत्र वर्जयते"....बस 'सात्विकता' कायम....
…..मात्र 'प्रारम्भ' का प्रयास...'प्रारब्ध' या 'भविष्य' प्रत्यक्ष नहीं होते परन्तु वर्तमान सदैव 'समक्ष' या 'समकक्ष' अवश्य है....एक निरपेक्ष सापेक्षता के साथ...."श्री गणेश"...मात्र 'विनायक-उद्देश्य'...मन को प्रणाम...इस प्रमाण के साथ..."गुरु कृपा हि केवलम"...केवल एक सत्य तथा सात्विक प्रण..."सर्वे-भवन्तु सुखिन:"....मात्र स्वयं की, स्वयं के लिए संतुष्टि की परिधि....स्वयं ही एक-मात्र स्वामी....तन, मन, धन....तनिक शुद्ध हो जाये तो सम्पूर्ण अशुद्धि का पलायन सम्भव...गणित की गणना में 'गुरु-कृपा' हो जाये तो सौ में से सौ....अर्थात शत-प्रतिशत...अर्थात संतुष्टि....
…..और अकसर अनेक विद्धवानों के श्रीमुख से 'किर्तन' के समय एक श्री कथन 'श्रवण' किया सकता है..जो अनिवार्य रूप से 'मनन' तथा 'चिन्तन' का विषय या स्वरूप या प्रतीक या सूचक हो सकता है..."कि"...'गणनाये' सिर्फ सत्य के निकट या निकटतम होती है....मात्र मित्र....प्रतियोगिता में सहभागी...प्रतिद्वन्दी कदापि नहीं...'सेर को सवा सेर' मिल ही जाते है परन्तु मन तो स्वतः 'सवा-मन' हो जाता है...शायद इसीलिए मन को काबू में रखा जाता है...यह सार्थक करने के लिए...."मन चंगा तो कठौती में गंगा"....सादर नमन....जय हो....हार्दिक स्वागत....जय-गुरुवर....प्रणाम...इस 'प्रण' के साथ कि 'प्रमाण' में 'प्राण' बसे...Just Because Of You...."अणु में अवशेष"....जय हो..."विनायक समाधान"...@...91654-18344....Just An idea.....To Feel Or Fill.....With Faith....Just For Prayer..... Just for Experience....INDORE / UJJAIN / DEWAS......












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