Tuesday 6 October 2015

...परम आनन्द....जय हो... ईश्वर भले ही पत्थर की मूर्ति हो...पर यह शाश्वत सत्य है कि वह आकर्षण रखता है..उच्च, समकक्ष या मध्यम...यह आकर्षण तीव्रता से पूर्ण भी हो सकता है..."वायुमंडल में आकर्षण"....सभी कार्य का स्तर सुव्यवस्थित और निर्धारित समय अनुसार....और यह सब करने के लिये...एक नहीं अनेक...या कहें...प्रत्येक....मात्र सेवक...और जब प्रत्येक सेवक है तो मालिक भी मात्र एक..."सबका मालिक एक"...और सेवक किसी को माने, या न माने परन्तु अपने मालिक को "सर्वशक्तिमान" अवश्य मानता है....."मै मालिक अपनी मर्जी का....पर मेरा मालिक कोई और है"...सहज कारण...सरपरस्ती...आश्रय...पनाह....Shelter....शरण...आसरा....इस मालिक ने सबको दिया...यथा-सम्भव, यथा-प्रयास...कुछ न कुछ, बहुत कुछ....परन्तु निश्चिन्त रूप से यथा-कर्म...सात्विकता की अनिवार्यता के साथ...सबको साधन, सबको विकास...एक क्षण की मूर्छा मृत्य में परिवर्तित हो सकती है, ठीक उसी प्रकार...एक क्षण की भक्ति अपने मालिक को प्रसन्न करने के लिये पर्याप्त हो सकती है...मालिक ने साधन सबको दिये...जन्म-सिद्ध अधिकार...अनिवार्य रूप से...और मालिक के दर्शन करना प्रत्येक का सहज अधिकार...मात्र एक क्षण की भक्ति के आधार पर....ईश्वर के दर्शन 'विराट' होते है, यह तो दर्शन के बाद ही पता चलता है...परन्तु भक्ति का एक क्षण निश्चिन्त रूप से 'विराट' हो सकता है...यह सिर्फ अनुभव से ही सिद्ध हो सकता है...भले ही सेवक अनेक हो, परन्तु मालिक एक तथा मात्र एक क्षण प्रार्थना के लिए....मात्र एक क्षण प्रतिध्वनि के लिए...ॐ....सर्वोत्तम नाद....अनादि से अनन्त...सहज स्व-सत्संग....सुनिश्चिंत आनन्द...निश्चिन्त प्रारम्भ...विनायक शुभारम्भ....ॐ गं गणपतये नम: ....जय हो...जो अप्रत्यक्ष है, वही प्रत्यक्ष है....यह बात अलग है कि दोनों को जानने के लिए समीकरण हल करना अनिवार्य है...सात्विक तथा सहज परिश्रम...'विनायक-परिश्रम'....हार्दिक स्वागतम @ 91654-18344...INDORE+UJJAIN+DEWAS...www.vinayaksamadhan.blogspot.in.....जय हो...सादर नमन...Regards....





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