….जय हो..."अविद्या"...अर्थात 'अज्ञान'....समस्त बाधाओं की जड़....या अनेक
विपत्ति या आपत्तियों की जड़....ज्ञान-वृद्धि की बाध्यता नहीं हो सकती है,
परन्तु ज्ञान कम होने पर आपत्ति अनिवार्य हो जाती है....और जैसा ज्ञान वैसा
भाव या धारणा...हम पुरुषार्थ करते रहते है...संघर्ष मात्र भौतिकवाद में
समाने के लिए...ज्यादा से ज्यादा अर्जन...अनेक लोगो के पास अनेक साधन हो
सकते है...परन्तु क्या सबका उपयोग सम्भव है ?...साधन का उपयोग होने पर ही
उसका साथ होना सार्थक है...साधन विकास के उदेश्य हेतु ही हो
सकते है...और सहज बात का सहज महत्व..."सब का साथ, सब का विकास"...साधन या
संग्रह या सुविधा पर समान अधिकार...अर्थात साधन आवश्यकता अनुसार समान रूप
से सर्व-उपयोगी होना चाहिए...साधनों का अनावश्यक संग्रह अनुपयोगी न हो
जाये, यह जागरूकता प्रत्येक की आवश्यकता हो सकती है...अधिक संग्रह जमाखोरी
भी कहला सकता है...अर्थात "स्वयं का विकास, संग्रह के साथ"....और वास्तव
में विकास होता है मात्र संग्रह का....और भौतिक संग्रह तो साथ छोड़ने के लिए
ही विकसित होता है...पुत सपुत तो क्यों धन-संचय ? , पुत कपुत तो क्यों
धन-संचय...धन सर्वाधिक शक्तिशाली साधन है....परन्तु धन-संचय वर्जित
है...अनावश्यक धन-संचय अज्ञान तथा अराजकता को आमंत्रित करता है, अत: इस
कार्य को अनावश्यक माना गया है....एक बस के पिछे लिखा पाया...."सोचो, साथ
क्या जायगा ?".....दुनिया का सबसे कठिन प्रश्न, परन्तु उत्तर सबसे
आसान....संग्रह का मोह त्यागने की इच्छा लगभग न के बराबर...तब इस कठिन
प्रश्न का उत्तर आसान करने के लिए संग्रह में परिवर्तन सम्भव
है..."अध्यात्मिक-संग्रह"....'प्रभु-प्रेम'....अष्ट-सिद्धी या नौ निधि या
दस-महाविद्या...समस्त अध्ययन पूर्ण सहज...न कठिन, न आसान...मात्र शब्दों का
संग्रह...जन्म-जन्मान्तर का संग्रह...हमेशा के लिए....परम आनन्द....जय
हो... ’अमृत-मंथन’.....निरन्तर अथक परिश्रम....सहज जल.....’वही अमृत, वही
विष”....बस आत्म-मंथन भिन्न हो सकता है....शेष चर्चा हेतु....www.vinayaksamadhan.blogspot.in.....अवश्य
अध्ययन करे.... why rush to visit the same ???….Just because need not to
purchase the books on simple subjects…..हार्दिक स्वागतम….
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