Wednesday 30 September 2015

जय हो...सादर नमन....'चर्चा श्रृंगार के अनुभव की'...सहज को जानने का अवसर...मात्र धर्म द्वारा...जब तक धर्म मनुष्य के आचरण तथा व्यक्तिगत नैतिकता से जुड़ा हुआ है, तब तक धर्म सकारात्मक भूमिका निभाता रहता है...मगर जैसे ही अन्धविश्वास का समावेश होता है, धर्म अपनी उपयोगिता खोने लगता है...अन्धविश्वास अर्थात हम स्वयं हमारे ही आश्चर्य को अनोखे ढंग से देखने लगते है और उसमे डर या भय का समावेश कर देते है...धर्म को चिर-स्थायी अर्थात अनंत माना गया है...हम में से प्रत्येक तथा हर एक किसी न किसी रूप में या किसी परिस्तिथिवश धर्म से परिचय करते रहते है...और जब तक हम सकारात्मक अनुभव करते है,तब तक धर्म से प्रश्न पूछने की आवश्यकता नही होती परन्तु विपरीत परिस्तिथियों में अनेक प्रश्न उत्पन्न हो सकते है...तब हम अपनी योग्यता से परे भी प्रश्न सोच सकते है...तब धर्म का एक-एक शब्द, एक-एक पल...कतरा-कतरा...स्पष्ट कहता है...सदैव सम रहिये...सहज...सम रस... ना हार का डर, ना जीत का लालच...धर्म का एक ही उद्देश्य है...समस्त परकोटों का सहज सम्मिश्रण अर्थात क्रमचय-संचय करे....उच्च, समकक्ष, मध्यम.... उत्तम सामाजिकता धर्म का परिणाम हो सकता है...धर्म को सहज मानने के लिए प्रकृति को धर्म माना गया है...और प्रकृति को सहज मानने के लिए पंच-तत्व स्वयं को प्रकृति मानते है..."सर्वे भवन्तु सुखिनः" मात्र पंच-तत्व को समर्पित प्रार्थना प्रतीत होती है..."गुरु-कृपा" तो हम सहज प्राप्त कर सकते है...माता-पिता से तथा अन्य किसी भी सम्माननीय मित्र से...धर्म के अनुसार यह सहज सौभाग्य कहलाता है...शृंगार हम अपनी सुंदरता निखारने के लिए करते है, न कि अपनी कमजोरिया छुपाने के लिए....तब हम बिना शृंगार के भी सुन्दर लग सकते है...क्योंकि शृंगार हमेशा अग्रसर होता रहता है...एक ढलान की और....मात्र विश्राम के लिए...विश्वाश के साथ...मात्र अनुभव का क्रमचय तथा संचय...संकल्पो की उड़ान आजादी के साथ सम्भव है...लापरवाही के साथ हरगिज नहीं...यही है...'विनायक-चर्चा'...आमने-सामने...हार्दिक स्वागत...."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)...


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