Tuesday 29 September 2015

जय हो..."चर्चा विपणन अर्थात "MARKETING" की"....किसी भी अभियान की सफलता के पिछे उसकी गुणवत्ता तथा गतिविधियों के साथ-साथ एक और पक्ष का हाथ हो सकता है...वह पक्ष होता है--'अभिकर्ता' अर्थात 'Agent'....जो सम्बंधित अभियान के लाभ अन्य लोगो को अवगत करवाता है...मात्र अभियान की दिशा-निर्देश अनुसार...जब गुणवत्ता उत्तम से साधारण होने लगती है, तब भी अभिकर्ता अपना कार्य अनवरत जारी रखते है...और अभियान की चकाचौन्ध क्रमशः बढ़ सकती है...और अभियान की सहजता गुम हो सकती है...बस यही से प्रपंच की धीमी शुरुआत होने लगती है....तब जन-सामान्य की चेतना या जागरूकता अनिवार्य हो सकती है...विशेषतः किसी भी धार्मिक अभियान में किसी भी अभिकर्ता की बाध्यता या अनिवार्यता हरगिज नहीं....क्योंकि धर्म में मात्र अनुयायी स्वीकार हो सकता है...सहज स्वागत के साथ....क्योंकि धर्म में मात्र "योग-दान" स्वीकार है...क्रय-विक्रय हरगिज नहीं...धर्म चमत्कार को भी मात्र आभूषण के आधार पर परिभाषित करता है...अर्थात सहज पारदर्शिता....शत-प्रतिशत सात्विक...अनुयायी अर्थात पूर्ण स्वैच्छिक अर्थात बाध्यता का प्रश्न नहीं...'धर्म-गुरु' हमारे समाज का अनिवार्य अंग हो सकते है...मात्र हमारे निर्णयो को आशिर्वाद देने हेतु...मात्र स्वस्थ और संतुलित समाज का निर्माण करने हेतु...सहज योग-दान...संत का अंत, प्रपंच द्वारा होता है तो धर्म का क्षय अर्थात असहज होना संभावित है...."धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो"....अर्थात संत स्वयम् साधारण एवम् सहज रह कर अनुयायियों को साधारण से उत्तम, उत्तम से श्रेष्ठ, श्रेष्ठ से विशिष्ट, विशिष्ट से अति-विशिष्ट तक की यात्रा का अनुभव करवा सकते है...समय गवाह है कि जब-जब अनुयायी की जगह अभिकर्ता को नियुक्त करने की कोशिश की गयी, तब-तब सहज को "असहज" अनुभव किया गया...अभिकर्ता का लक्ष्य अधिक मात्रा में लाभ हो सकता है, परन्तु अनुयायी तो वास्तव में अधिक लाभ कमा सकता है...मात्र एक ही तकनीक या मन्त्र..."ना हार का डर, ना जीत का लालच"....जो सत्य तथा स्थायी है, उसे सहज नाम से ही पुकारा जाता है...सहज प्रश्न, सहज उत्तर....सहज जिज्ञासा,सहज समाधान....और धर्म ने सबसे आसान तथा सहज गुण की श्रेणी में मात्र "ईमानदारी" को मात्र इसलिये रखा है क़ि हम स्वयं से झूठ कभी नहीं बोल सकते है...शायद असम्भव हो सकता है...और ईमानदारी कही भी, कभी भी प्रदर्शित की जा सकती है...स्वयम् के साथ या दुसरो के साथ...परिणाम उत्तम ही होगा...और शब्दों में इमान रखने से सत्य सहज निर्मित हो ही जाता है...ईश्वर, ईमान, ईख स्वयं के प्रयास से फलित होते है...अर्थात रस से सरोबार...'अधजल गगरी, छलकत जाय' कदापि नहीं...यह शुद्ध रूप से अनुभव किया जा सकता है...'विनायक-चर्चा' के माध्यम से सहज अनुभव तथा निवेदन प्रस्तुत है...हार्दिक स्वागत..."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास).




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