Wednesday 30 September 2015



जय हो...सादर नमन....”अनेकान्त” अर्थात ‘अनेक’ और ‘अन्त’...अर्थात एक से अधिक...गुण अथवा परिणाम के साथ...अर्थात आस्ति-नास्ति...शब्दों का माया-जाल मात्र...तर्कों से सत्य सिद्ध करने का सरलतम उपाय या प्रयास...ऐसा ‘भी’ अथवा वैसा ‘ही’ का आवरण...भाषा और विद्वता के विभिन्न प्रयोगों में अनेकान्त लगभग नगण्य माना जाने लगता है...यही नगण्य संशयवाद का प्रतिरोध करता है...क्लिष्टता विद्वान की अनिवार्यता हरगिज नहीं हो सकती है...असीम संभावनाओं का प्रकाशन धार्मिक आवरण में लगभग सुरक्षित महसूस होता है...ना हार का डर...ना जीत का लालच... शृंगार हम अपनी सुंदरता निखारने के लिए करते है, न कि अपनी कमजोरिया छुपाने के लिए....तब हम बिना शृंगार के भी सुन्दर लग सकते है...क्योंकि शृंगार हमेशा अग्रसर होता रहता है...एक ढलान की और....मात्र विश्राम के लिए...विश्वाश के साथ...मात्र अनुभव का क्रमचय तथा संचय...संकल्पो की उड़ान आजादी के साथ सम्भव है...लापरवाही के साथ हरगिज नहीं...यही है...'विनायक-चर्चा'...आमने-सामने...हार्दिक स्वागत...."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)....

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