Monday 28 September 2015

……...प्रत्येक-मन की सहज या महज जिज्ञासा हो सकती है..."कब ?, क्यों ?, कैसे ?"...तब....कभी-कभी कोई अनजानी सी.....जानी-पहचानी सी.....मनचाही सी....अजनबी सी...चर्चा करने की इच्छा हो सकती है...ठीक पहली मुलाकात जैसी....उबने का डर नहीं....अगर उबने या बोर होने की स्थिति आती भी है तो सहज स्थानांतर....पुनः आगमन की बाध्यता कदापि नहीं....न हार का डर, न जीत का लालच...जमावाड़े का जोर नहीं...कल्टी में भी गल्ती नहीं...'काम की बात' की तलाश...प्रतिदिन काम की तलाश करने वाला भी 'बंधवा' कहलाना पसंद नहीं कहलाता...काम लेने वाले, काम करने वाले, काम देने के साथ-साथ....'काम की जगह' का भी महत्व होता है जिसे 'कार्य-स्थल' कहते है...और अगर कार्य स्थल 'स्थायी' हो तो सहज रूप से सब-कुछ "स्थानीय" लग सकता है...और अगर किसी भी चर्चा में शब्द 'स्थानीय' होने लगते है तो ऐसा लगने लगता है कि सम्पूर्ण चर्चा पूर्व से ही ज्ञात है....सहज पूर्वाभास....हम में से अनेक मित्र इस प्रकृति प्रदत्त वरदान को सहज महसूस करते है...मात्र कुछ सात्विक कार्यो द्वारा...मात्र ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्रचित्त करने हेतु...सहज सामुद्रिक ज्ञान प्रत्येक मानव-मन का सहज स्वभाव होता है...सिर्फ इसलिए कि कोई किसी को भयभीत ना करे...शेर, शेर को कभी नहीं डराता है परन्तु मनुष्य, मनुष्य को डराने के लिए नित-नए प्रपंच विचार करते रहता है...यह जानते हुए भी कि पूर्वाभास की शक्ति प्रत्येक को सहज प्राप्त है....यह सत्य है कि जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है....कभी असमंजस की स्थिति में हम यह निर्णय नहीं कर पाते है कि हम क्या चर्चा करे ???...तब निर्णय लेने हेतु हम किसी भी मित्र को तलाशते है....और इस व्यवसायिक युग में शुद्ध तथा सात्विक मित्र तलाशने के लिए सर्वप्रथम शब्दों का आदान-प्रदान अति-आवश्यक हो जाता है...अर्थात सहज....श्रवण, किर्तन, चिंतन, मनन....तत्पश्चात 'ठहराव-प्रस्ताव'...दो मित्रो के बीच.....जय हो...सादर नमन...हार्दिक स्वागत..."जय श्री महाकाल"...




No comments:

Post a Comment