Wednesday 30 September 2015

जय हो...सादर नमन...हम स्वयं को दर्पण में अक्सर निहारते है...ठीक उसी प्रकार जैसे हम आँख बंद करके स्वयं के बारे में सोचते है...हम दर्पण में आमने-सामने स्वयं के अतिरिक्त किसी और को नहीं देख सकते है...जबकि आँख बंद करके हम स्वयं के साथ-साथ अन्य के बारे में भी सोच सकते है...दर्पण को देखने के लिए दृष्टि अर्थात आखों की आवश्यकता होती है परन्तु बंद आँखे तो अंतर्दृष्टि या दृष्टिहीन जैसी स्थिति हो सकती है...शायद इसीलिए कहा गया है 'मोरा मन दर्पण कहलाय'...साक्षात् आमने-सामने...मात्र श्रृंगार ही एकमात्र ध्येय...हम श्रृंगार अपनी ताकत या अपना आकर्षण बढ़ाने के लिए करते है...अपनी कमजोरी छुपाने के लिए हरगिज नहीं...दर्पण से चर्चा अर्थात 'विनायक-चर्चा'...हार्दिक स्वागत...विनायक समाधान @ 91654-18344...(उज्जैन/इन्दौर/देवास)





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