Monday 28 September 2015

..."म्हारो हेलो सुणो जी रामा पीर"...जय हो....आपसे लगातार आमने-सामने "विनायक-समाधान" @ 91654--18344 द्वारा सहज साधारण बातचीत करने की कोशिश की जा रही है, विशेष रूप से "फेसबुक" नामक जहाज के पर....शब्दों को निशुल्क बेचना...और फिर शब्दों के आदान-प्रदान का लालच....खरीददार को प्राप्त करने में कोई जल्दी नहीं...बेचने वाले को बनाने की तैयारी से फुर्सत नहीं...सहज कारण...advance booking....सभी शब्द मात्र साधारण या अति-साधारण....वही लिखा जा रहा है, जो हम सबको पहले से ही मालुम है...शब्दों को मात्र सहजता के सांचे में ढालने की कोशिश भर...और जब यह वास्तव में होता है तो ऐसा लगता है कि वास्तव में शब्द ही किसी मित्र की तरह आपसे बात कर रहे है...सहज मित्र....शब्द-कुमार या शब्द-चन्द्र या शब्द-प्रकाश या शब्द-आनंद या शब्द-सिंह.....बस मात्र अध्ययन का परिश्रम करना पड़ सकता है....और इस परिश्रम को आसान करने के लिए सभी वाक्य आपस में मात्र तीन बिन्दुओं के माध्यम से जोड़े गए है....सहज क्रमचय-संचय...कही से भी शुरू करे...न हार का डर, न जीत का लालच...."चर्चा का आधार रेखाए हो या बिंदु"...कोई फर्क नहीं पड़ता....लेकिन बिंदु जब अग्रसर होते है तो रेखाएं स्वत: निर्मित होती है...और इस क्रम का एक ही सहज नाम हो सकता है, जो है..."क्रमशः"...जो स्वयं दो बिन्दुओं का स्वामी है...दो पहलु...एक जो नहीं मालूम लेकिन अगर मालूम हो जाए तो सुखद महसूस हो.....और जो मालूम हो लेकिन अगर और ज्यादा मालूम हो जाय...तो आनन्द महसूस हो सकता है...ग्यारंटी फिर भी नहीं, क्योंकि श्रवण की चेष्टा या अध्ययन का परिश्रम स्वयं को ही करना होता है...श्रवण-यंत्र बाज़ार में सहज उपलब्ध है वह भी "Volume control" के साथ....परन्तु श्रवण-तंत्र तो GOD-gift ही माना जाता है...प्रत्येक "ENT-specialist" का यही मत हो सकता है....प्रत्येक प्राणी के लिए...और अध्ययन के तो रूप अनेक...हर रूप उम्दा...शब्द तो हमेशा अक्षय तथा अखंड सिर्फ रूप बदलने के अतिरिक्त को कोई कार्य नहीं...कोई और योग्यता नहीं...मज़बूरी में इसी में योग्यता हासिल करना पड़ी.....और यह वरदान कि "दमकाते रहो...केवल बरस कर"....इस चेतावनी के साथ कि "भला दमकने की क्या आवश्कता ???"....क्यों ?..पूछने पर उत्तर या स्पष्टीकरण कुछ भी माने....कि दमकने वाले, चमकने वाले हो जाते है...और चमक से चमकाना, चमत्कार की श्रेणी में आ सकता है...आकाश में बिजली चमकती है तो जल तथा बादल की उपस्तिथि अनिवार्य हो जाती है...और वहां शब्द मात्र प्रतिध्वनि का प्रारूप...यह सब कब ? कैसे? क्यों ? और कौन करता है ?....यह सब को मालूम है...यही तो आनंद है...'विनायक-चर्चा' या 'विनायक-समाधान' या विनायक-परिश्रम' तो बस एक माध्यम है...मात्र शब्दों के 'विनायक-प्रसार' हेतु...मात्र "आमने-सामने" हेतु सहज निमंत्रण....हार्दिक स्वागतम...

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