जय हो..'चर्चा सदाबहार फ़िल्म की'...हम कोई फ़िल्म देखने जाते है...उससे
प्राप्त मनोरंजन की तुलना ज्ञात समीक्षा से करते है तो हमारी अपनी एक अलग
समीक्षा भी हो सकती है...और अगर हम स्वयं कलाकार होने की कल्पना करते है तो
समीक्षा की अपेक्षा पटकथा की ओर अवश्य ध्यान जा सकता है...तब सदाबहार
पटकथा हेतु प्रत्येक की इच्छा हो सकती है...पास-पास रहने से प्रेम उत्पन्न
हो यह तो अनुभव की बात हो सकती है, परन्तु दूर रहने से प्रेम जरूर ख़त्म
होने की सम्भावनाये अवश्य हो सकती है...गणित विषय इसलिए आसान है
कि शून्य से नौ तक यात्रा बाकि समस्त यात्राओं से लघु या सुक्क्ष्म या
महीन या कुछ-नहीं या सब कुछ हो सकता है...परन्तु धर्म कहता है कि आसान को
समझने के लिए प्रार्थना अति-आवश्यक है...आसान को आसान कहना आसान है, परन्तु
क्लिष्ट को आसान कहना भी आसान होना चाहिए...Train you mind, to mind your
train....शायद इसी कला को "प्रार्थना" कहा जा सकता है...और प्रत्येक कला
सरपरस्ती या आधिपत्य या आमने-सामने की परिधि में हो सकती है...शायद इसीलिए
गुरु-कृपा को अपरम्पार अर्थात महा-कृपा माना गया है...अतः "गुरु कृपा ही
केवलम्" शायद इसलिए कि--'गुरु बिन ज्ञान अधूरा'...जल तथा ज्ञान मात्र इसलिए
पतले माने गए है कि तलवार के वार से भी सुरक्षित है...और मात्र सुरक्षित
होने के कारण निरंतर अस्तित्व में....मात्र आदान-प्रदान के कारण.... मात्र
यही सदुपयोग...शायद इसीलिए सदा-बहार....अर्थात सहज हमेशा के लिए...आसान
द्वारा कभी भी अतिशयोक्ति संभव नहीं....और चमत्कार की सम्भावनाये भी
नगण्य...और 'विनायक-चर्चा' की संभावनाए अनन्त... हार्दिक स्वागत...विनायक
समाधान @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)
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