’पिता-पुत्र’....जब बन जाते है.....’गुरु-शिष्य’....किसी भी चर्चा में
प्रथम चरण में मुख्य महत्वपूर्ण पहलु श्रवण, कीर्तन, चिंतन, मनन हो सकते
है....तत्पश्चात द्वितीय चरण में आहार, विहार, सदाचार.....पिता का सम्मान
पुत्र की जवाबदारी हो सकती है....पुत्र पर नियंत्रण पिता की जवाबदारी हो
सकती है....और पिता-पुत्र के मध्य सामंजस्य की जवाबदारी माता की हो सकती
है....सम्मान और नियंत्रण का सामंजस्य....पूर्ण जवाबदारी....प्रत्येक चरण
में....अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि जवाबदारी यदि डर के साथ निभाना
पड़े तो स्थाई होगी अथवा अस्थाई ???....तब यह प्रश्न भी उठ सकता है कि ऐसी
जवाबदारी का क्या लाभ जिसमे स्थाई या अस्थाई का आधार मात्र डर हो
???....सिर्फ डर के कारण प्रश्न का उत्तर लापता.....और बल्कि एक प्रश्न से
दूसरा प्रश्न उत्पन्न....दुविधा की शुरुआत....सुविधा का अंत.....’सम्मान और
नियंत्रण’ सामंजस्य की परिधि से मात्र डर के कारण दूर.....जबकि सम्मान और
नियंत्रण का सामंजस्य तो सहज कर्तव्य ही हो सकता है....और कर्तव्य में डर
की अपेक्षा एक उर्जा की आवश्यकता होती है...”आनन्द की उर्जा’....जो ना नष्ट
होती है, न ही उत्पन्न होती है....बस जाग्रत होती है....स्वत:....पूर्णतया
सात्विक प्रक्रिया....स्व-अनुभव या आत्म-अनुभव....और एक-मात्र माध्यम हम
स्वयं होते है....’ना हार का डर, ना जीत का लालच’......और जवाबदारी से डर
हट जाता है या बाध्यता समाप्त हो जाती है तो स्वत: कर्तव्य का
निर्वाह....या कह सकते है....स्वत: “गुरु-शिष्य” परम्परा का
निर्वाह......माता के सात्विक समर्थन के साथ...मात्र सात्विक उत्थान
हेतु.....जय हो....जब जन्म सहज होता है तो अन्त भी सहज होना
चाहिए....परन्तु इस जीवन-चक्र में ‘भूल-चुक, लेनी-देनी’ के अंतर्गत अनेक
असहजताए सम्मान और नियंत्रण के सामंजस्य के प्रवाह को प्रभावित कर सकती
है...शेष चर्चा अति-शीघ्र....ससम्मान.....सादर नमन्......”विनायक-चर्चा”
हेतु सादर आमंत्रित…..फुर्सत के क्षणों में शब्दों का आदान-प्रदान अर्थात
चर्चा का योग, समय अनुसार.....उच्च, समकक्ष या मध्यम....शुद्ध रूप
से....स्वयं का निर्णय हो सकता है....
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