Tuesday 29 September 2015

कहते है प्रार्थना ही ईश्वर का निर्माण करती है...ईश्वरीय कृपा या अनुकम्पा के सहज उदहारण को हम साक्षात् प्रतिदिन अनुभव करते है या कर सकते है...धर्म को स्वीकार करने सहज कारण...स्वयं को सुखी, संपन्न, खुशहाल समझने का सहज स्पष्टीकरण....हम कितने धार्मिक है ? या हो सकते है ?...यह आकलन हम स्वयं बड़ी आसानी से कर सकते है...यदि हम भोजन योग्य प्रदार्थों की उपलब्धता का सहज सामर्थ्य रखते है...हम स्वयं भोजन करने और करवाने का सामर्थ्य रखते है...हम स्वयं शरीर में शक्ति अर्थात प्रबल शौर्य पूर्ण वायुमंडल रखते है...हम समझदार एवम् सुशील स्त्री-धन के सम्पर्क में रहते है (माँ,बहन,पत्नी व पुत्री)...सामाजिक संस्कार ग्रहण या निर्वाह हेतु पर्याप्त धन खर्च करने का सामर्थ्य रखते है...और यथा सम्भव, यथा इच्छा दान शक्ति का सामर्थ्य रखते है,,,यह समस्त तथ्य पूर्णतया धार्मिक हो सकते है...सहज होने का साथ-साथ प्रपंच मुक्त भी प्रतीत होते है...सभी विशेषताओ की बजाय कोई एक या दो भी हो तो भी आभूषण में चाँद तो चार ही कहलाये जा सकते है....धर्म कहता है, इस प्रकार का सौभाग्य अखण्ड तपस्या या अदभुत प्रारब्ध या उत्तम भाग्य या उज्जवल पुरुषार्थ या निर्मल प्रार्थना....के उपरान्त ही सम्भव है....और उपरोक्त सभी कार्य हमारे द्वारा ही संपन्न हो सकते है....यही हमारे कर्म रूपी संस्कार हो सकते है....




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