Tuesday 29 September 2015

जय हो...शुद्ध रूप से नियम की बात...किस्सा कुर्सी का...धर्म के अनुसार 'आसन' की चर्चा...₹ की बात नहीं, मात्र % की चर्चा...'गृहस्थ-आश्रम' का अनिवार्य संस्कार...सहज कर्म...सहज धर्म...सहज चक्र...'पिता के आसन पर पुत्र तथा पुत्र के आसन पर पिता'...अर्थात शिष्य का गुरु के पथ पर अग्रसर होना...और पथ-संचालन गुरु निर्देश के अनुसार...पिता का आसन धार्मिक हो कर परम-पिता परमेंश्वर द्वारा संरक्षित हो सकता है...और पुत्र का आसन शैक्षणिक हो कर पिता द्वारा संरक्षित हो सकता है...यदि इन दोनों आसन का आदान-प्रदान सुचारू रूप से हो जाये, तो राज्य-पक्ष की स्थापना या जड़त्व स्वतः सुचारू संचालित हो सकते है...तुरंत आज्ञा का पालन करना या करवाना नियम हो सकते है...परन्तु स्वतः आज्ञा का पालन करना या करवाना संस्कार ही हो सकते है...नियमो को तोडना आसान हो सकता है...परन्तु संस्कारो को भुलाना आसान नहीं....धर्म अनुसार तो चित्र को भी सम्मान देना सहज संस्कार माना गया है...सहज सम्मान...सरल संस्कार...'यथा बीजम् तथा निष्पत्ति'...और धर्म उर्वरक का कार्य करता है...पञ्च-तत्व के रूप में...आहार, विहार, सदाचार के रूप में...श्रवण,कीर्तन, चिंतन, मनन के रूप में... यही कारण है कि धर्म 'विशेष' को भी सहज रूप में स्वीकार करता है...स्वयं को सहज मानने में यह लाभ हो सकता है कि अनेक असहज पहलुओं से बचा जा सकता है...प्रति-पल या प्रति-दिन...धर्म की सहज उपलब्धि--'वायुमंडल में सहज समरसता'....अर्थात...~'रवि-किरण'...~'सोम-अर्चना'...~'मंगल-ध्वनि'....और इस क्रम की 'क्रमचय-संचय' नामक यात्रा का आधार है...~"गुरु-वंदना"....प्रति-पल...प्रति-दिन...इसी क्रमचय-संचय की चर्चा का नाम 'विनायक-चर्चा' भी सम्भव है... .धर्म ने सबको...सब-कुछ, कुछ-कुछ, बहुत-कुछ दिया है...परन्तु किसी के सांसों की गणना का अधिकार अपने पास रखा है, मात्र यह सिद्ध करने के लिए कि सहज आनंद ही स्थाई है....और इस आनंद की गणना तो नहीं परन्तु 'आकलन' ही सम्भव है...वह भी मात्र प्रतिशत में...वह भी मात्र शत-प्रतिशत की ओर अग्रसर होने के लिए...और "विनायक समाधान" द्वारा 'विनायक-चर्चा' के माध्यम से ~'जय हो...सादर नमन'~ कहने का अपना एक अलग आनंद हो सकता है...निःस्वार्थ तथा निःशुल्क...प्रत्येक शब्द के माध्यम से...हार्दिक स्वागत...⌚ @ ^m^...91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)





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