Wednesday 30 September 2015

===मन की बात===वर्तमान में “श्रीमद् भगवद गीता” की चर्चा===
| कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि || ४७ ||..
हमारा अधिकार कर्म करने में हो.....फल में नहीं.....ना जीत का लालच....ना हार का डर.....कोई आसक्ति नहीं.... तीन विचारणीय बातें हैं.....कर्म (स्वधर्म), विकर्म तथा अकर्म... तीन उपश्रेणिया हैं.... यथा नित्यकर्म, आपात्कालीन कर्म तथा इच्छित कर्म...और आसक्ति चाहे....स्वीकारत्मक हो या निषेधात्मक, वह बन्धन का कारण है....यह बात साधारण हो या असाधारण कोई फर्क नहीं पड़ता है परन्तु साधारण व्यक्ति भी यह बात इमानदारी से निर्वाह कर सके तो वह आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्च पद पर स्थित होता है....ऐसा व्यक्ति अवश्य ही वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सारी तपस्याएँ सम्पन्न किये होता है.... और अनेकानेक बार तीर्थस्थानों में स्नान करके वेदों का अध्ययन किये होता है....ऐसा व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ माना जाता है.....श्रीमद् भगवद गीता शुद्ध रूप से ज्ञानमार्ग का ग्रन्थ है...प्रत्येक पहलु को प्रत्येक कोण से पूर्ण सहजता के साथ प्रत्येक के लिए प्रस्तुत किया गया है....मात्र श्रवण, कीर्तन, चिन्तन, मनन....मात्र आहार, विहार, सदाचार...मात्र ज्ञानेन्द्रियो को प्राथमिकता...सम्पूर्ण विश्व एवम ब्रम्हांड हेतु नितान्त आवश्यक.....एकमात्र चमत्कार....हमेशा के लिए....अनंत, अमूल्य, अजर-अमर....यह तो दैवीय ग्रन्थ है जो मात्र सदुपयोग हेतु मनुष्य मात्र को सर्वोत्तम उपहार है.... शुन्य से लाभ लिया जा सकता है...हार जीत का विषय लालसा को आमंत्रित करता है....एक ही प्रार्थना..."सर्वे भवन्तु सुखिनः"+++++एक ही आधार "गुरू कृपा हिं केवलमं".....आप सभी आमंत्रित है...हार्दिक स्वागत...पूर्व निर्धारित समय हमेशा की तरह सुविधा सिध्द होती रहेगी....विनायक सामाधान @ 91654-18344....

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