Monday 28 September 2015

@@@@@ "विनायक-परिश्रम"...'ना हार का डर, ना जीत का लालच'...सहज-यात्रा...शब्दों की अभिव्यक्ति मात्र...इस अधिकार का पूर्ण उपयोग किया गया...अर्थात सीधी बातचीत करने की कोशिश की गयी...हो सकता है कि आनंद अनुभव हो...शीघ्र या विलम्ब...समझने में समय भी लग सकता है...प्रत्येक कार्य या पहलु के सकारात्मक होने की सम्भावनाये 25% से 50% सुनिश्चिंत होती है...यह बात अलग है कि आनंद को स्पर्श करने के लिए मोती प्राप्त करने का परिश्रम करना पड़ सकता है...परन्तु यह सहज प्रक्रिया हो सकती है...क्योकि शब्द तो अखण्ड या अजर-अमर....खंडन या विखंडन हरगिज नहीं...कभी भी, कितना भी अध्य्यन करे...भला पानी में लठ्ठ चलने से पानी अलग हुआ क्या आज-तक ???...तैराकी और नौकायान तो जल में ही संभव है और ज्ञान तो जल से भी पतला माना गया है...धर्म मात्र पुराणों में सुशोभित नही...बल्कि प्रतिदिन के दैनिक जीवन का दैनिक श्रृंगार...'बून्द-बून्द घड़ा भर जाए...'विनायक-ज्ञान' का उपयोग...अर्थात सरल तथा शीघ्र परिक्रमा...मात्र सात्विक प्रसार...सदाबहार शब्द स्वागत के लिए सदैव तत्पर...ठीक चिर-स्थाई धर्म के समान...धर्म को सहज रूप में जानने का प्रयास तथा अनुभव.... सशर्त सशक्त सात्विकता अनिवार्य...सहज नियम, नियमित होने लगे तो संकल्प कहलाते है...और अनिवार्य हो जाये तो सिद्धान्त...और दोनों के सरल योग द्वारा पुरुष ही महापुरुष कहलाता है.....महापुरुष मात्र स्वयं के निर्णय से जाने-पहचाने जाते है....और निर्णय लेने की क्षमता हेतु आसन अनिवार्य हो सकता है...जय हो...हम एक नहीं अनेक आसन मजबूती से ग्रहण करना चाहते हैं...स्नान आसन, पूजा आसन, भोजन आसन, योगासन, राज्य-पक्ष आसन (अर्थ आसन), शयन आसन इत्यादि... तथा कोई भी आसन हो, यदि ध्यान, एकाग्रता और अनुशासन का समावेश हो तो महापुरुष का आसन.....सादर नमन्...





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