Wednesday 30 September 2015

Vinayak Samadhan: .जय हो…..”मिच्छामी दुक्कड़म”...."विनम्र इस हद तक ह...

Vinayak Samadhan: .जय हो…..”मिच्छामी दुक्कड़म”...."विनम्र इस हद तक ह...: .जय हो…..”मिच्छामी दुक्कड़म”...."विनम्र इस हद तक हुआ जा सकता है कि अन्य लोग निश्चिन्त रूप से अपनी राय बदल सकते है"...माफ़ कर देने...
.जय हो…..”मिच्छामी दुक्कड़म”...."विनम्र इस हद तक हुआ जा सकता है कि अन्य लोग निश्चिन्त रूप से अपनी राय बदल सकते है"...माफ़ कर देने या माफ़ी मांग लेने के पहले यह आवश्यक है कि हम नफरत से मुक्त हो जाए...मगर शाब्दिक क्षमा-याचना का अपना महत्त्व होता है...स्वयं का अहम् खंडित करने का सहज प्रयास....तब...Ego travels towards....Downward....Without digging....into the pit...हमेशा के लिए दफ़न हो जाए शायद...एक सुनहरा मौका वह काम करने के लिए, जो मात्र स्वयं से ही सम्भव है...अपनी गलती को सुधारना अर्थात स्वीकृत करना...दोनों पक्षों के लिए शब्द आवागमन हेतु...सहज सेतु...&...From this bridge we may observe so many pits in which EGO may be buried...down OR underground....&....downwards....Forever.....शब्दिक 'क्षमा याचना' क्रोध के ज्वार को ठंडा तथा अपमान की तीखी धार को कम कर सकती है...'क्षमा-याचना' या 'क्षमा-दान'....औपचारिकता भी अपना एक अलग महत्व रखती है...सहजता का स्पर्श...प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष...मात्र स्व-अनुभव...प्रत्येक समाज इसे अनिवार्य मान्यता देता है...एक उत्सव के रूप में....होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस.....अर्थात मिच्छामी दुक्कड़म....एक ही मकसद....मात्र "क्षमा"... एक पर्व के रूप में...The Simplest Task...Ever...'इसकी कहानी, मित्रो की जुबानी"...ऐसा कहते है कि क्षमा से सम्बंधित समस्त कार्य बहुत ही आसान होता है, परन्तु साहस अनिवार्य प्रारम्भ होता है...दुस्साहस न हो अत: प्रतिशत की बाध्यता हरगिज नहीं......पूजा, अर्चना, आरती, समागम, त्याग, तपस्या, उपवास...यही सब उत्सव-पर्व मनाने के लिए शायद पर्याप्त है.....मात्र शून्य से एक की यात्रा....”गलती” मिट्टी का मलबा है....मलबे में सब-कुछ, बहुत-कुछ, कुछ-कुछ या कुछ नहीं....यदि हम स्वयं की गलती को सहज साहस के साथ स्पर्श करते है तो लगता है कि साहस उम्दा होते हुए भी सहज है....यही सहजता साहस को "उच्च-कोटि- सम्मान" प्रदान करती है....मलबा उठाने वाली मशीने (JCB) ज्यादा शक्तिशाली तथा उच्च दक्षता के अनुरूप होती है....ठीक भारतीय सेना के 'टैंक' के समान...आमने-सामने....प्रत्यक्ष....सहज 'विनायक-परिश्रम'....सब के स्पष्ट इनकार के बाद भी अपनी गति से कार्य सहज संपन्न....अश्व-शक्ति की ताकत कल-कारखानों की मशीनों में हो सकती है तो आश्रमों में भी "विनायक-शक्ति" का उल्लेख हो सकता है....’हाथी की ताकत’.....पूर्ण सात्विकता...और यह शक्ति अत्यन्त सहज है...जो मात्र सहज शुरुआत में विश्वास रखती है....’विनायकम्-वंदना’....किसी भी नए कार्य पर सहज प्रथम आमंत्रित....सहज अनिवार्य...सब के साथ, सब का विकास...वृहद् उदेश्य....थकान भी होना लाजमी है....मनोरंजन का बहाना लापरवाही का कारण बनता है...और मनोरंजन संगति के परिणाम लाता है...’अमृत-मंथन’.....निरन्तर अथक परिश्रम....सहज जल.....’वही अमृत, वही विष”....बस आत्म-मंथन भिन्न हो सकता है... मात्र विश्राम का एक उपाय आजमाना होगा....Well begin is half done.....50-50...शुरुआत को "श्री गणेश" नाम से पुकारा जाता है...शुरुआत मात्र विनायक द्वारा….ध्यान रहे....निमंत्रण के तहत अतिथि मात्र....कार्य तो कर्ता या जातक द्वारा ही संपन्न होता है....और संपन्न में परिश्रम का तड़का लगा कि सम्पन्नता निश्चित हाजिर....शेष चर्चा हेतु....www.vinayaksamadhan.blogspot.in.....अवश्य अध्ययन करे...हार्दिक स्वागतम..










जय हो...'गुरु कृपा ही केवलम्'....'चर्चा प्रसन्नता की'...अगर किसी का व्यक्तित्व या शक्ति का परिक्षण करना हो तो एक मात्र भाव है--'प्रसन्नता'....कौन कितना खुश है ? यह इस समय की सर्वाधिक तुलनात्मक चर्चा हो सकती है...प्रत्येक मित्र हर हाल में प्रसन्न-चित्त रहना चाहता है....अर्थात चिंता-मुक्त....मगर यह प्रश्न स्वाभाविक है कि प्रसन्नता सहज रूप से कैसे हासिल हो ???...और इसका एक ही सहज उत्तर हो सकता है--'सृजन'...अत्यंत आसान है, सृजनात्मक होना...'मात्र उन सहज भाव को अग्रसर करना जो मन को अच्छे लगे'...इस सामान्य बात के उपरान्त भी सृजन उत्पन्न करने में कठिनाई आती है तो यह विचार करना ही होगा कि सृजन कैसे उत्पन्न हो ???...स्वयम् को 'धन्यवाद' कहना भी आसान नही है...मन से प्रश्न उठता है....'क्यों ?'...तब भी यह विचार हो कि स्वयं को धन्यवाद कैसे कहे ???....सृजन अर्थात कुछ न करने से अच्छा है, कुछ करना....मात्र सात्विक कर्म...सहज सृजन....मगर स्मरण हो कि सृजन में सबसे बड़ी बाधा 'अहंकार' होता है...अहंकार के तहत हम स्वयं को किसी भी सामान्य पहलु से इनकार कर सकते है...बस यही इसका बहु-पाश शिकंजा कसता है....और यही अहंकार हमारी प्रसन्नता को भंग कर सकता है...अहंकार के वट-वृक्ष की छाँव में केवल 'मैं' को ही विश्राम की पात्रता है...'हम' के शत-प्रतिशत विपरीत...मैं कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाये मगर प्रार्थना में "मैं" का उपयोग असम्भव है....भला 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' में 'मैं' कैसे संभव है ??? और यह सत्य अनुभव है कि प्रार्थना ही प्रसन्नता का मजबूत माध्यम है...और प्रार्थना में प्रसन्नता का समावेश हो जाये तो वास्तविक सृजन की शुरुआत का अनुभव होता है...तब हम स्वयं को धन्यवाद कह सकते है...जब मन ज्यादा विचलित हो जाए तब प्रसन्न रहने के लिए हमारे लिए कुछ सामान्य सात्विक कर्म मात्र उपाय का कार्य करते है... समस्त उपाय मात्र नकारात्मकता का पलायन करने हेतु...कभी-कभी हम अपने मन को अपना परिचय देंने लगते है, ठीक सूरज को दीपक दिखने के समान.... हम अपने मन से वार्ता-लाप करते है तो अनेक पहलु सामने आते है...कब? क्यों? कैसे?....और सभी उत्तर की प्रतीक्षा कर सकते है परंतु उलझन सहन नहीं सकते है....इन्ही पहलुओं पर चर्चा करने हेतु आमने-सामने अर्थात 'विनायक चर्चा' में आपका हार्दिक स्वागत है...हमारी इच्छाएं पूर्ण हो न हो यह बाद की बात है, परन्तु हम इन पर सामान्य चर्चा कर सकते है...सामान्य परिवेश में सामान्य चर्चा....यह भी एक अलग आनंद हो सकता है..."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर / उज्जैन / देवास)..





जय हो...सभी मित्रो को नमस्कार....इन तीन लाइनों पर, जो कागज पर किसी भी मित्र द्वारा खीचीं जाती है, चर्चा शुद्ध रूप से व्यक्तिगत होती है, आप सभी मित्रों ने अभी तक देखा होगा कि जितनी भी, अभी तक चर्चा हुई है, किसी वयक्ति विशेष का नाम उल्लेखित नहीं होता है....संभव नहीं है...नाम तो राम का ही बड़ा है...'राम से बड़ा राम का नाम'....अर्थात मर्यादा पुरुषोत्तम....जब हम किसी पहलु पर आवश्यकता के अनुरूप सोचने में असमर्थ होते है तो सामानांतर सोचने वाले की आवश्यकता महसूस हो सकती है....इसी पहलु को ध्यान में रख कर 'विनायक चर्चा' का आयोजन किया गया है...सहज मित्रों की सभी को आवश्यकता होती है...मित्रों के साथ मन खोल कर बात करने का सुयोग प्राप्त होता है...मित्रता का धागा मजबूत जंजीर में बदलते दैर नहीं लगती है...बस विश्वास का अनुभव होना चाहिए...मित्रता में संकोच का शिष्टाचार न हो...और यंहा प्रगति में बाधा हो सकती है...मानव मात्र का मन गुल्लक की तरह होता है....और अच्छे विचार उसमे धन के समान मान सकते है...और अच्छे विचारो का उद्गम स्थल मात्र मित्र ही हो सकते है...और मात्र मानव को ही यह वरदान है कि वह किसी को भी अपना मित्र मान सकता है...बना सकता है... मित्र की सहज परिभाषा है कि वह जो आपकी बात सुनें....आपका प्रोत्साहन बनाये और बढाएं....आपको कुसंगति से आगाह करे....पूर्ण सहज और सात्विक रूप से...आपको सुरक्षित दृष्टि से अवलोकन करे....और मित्र का महत्व तब सिद्ध होता है जब आप अपने स्वयं के विचारो से विरोध, प्रतिरोध या अवरोध महसूस करे...तब आपको 'विनायक चर्चा' की आवश्यकता महसुस हो सकती है...इस स्थिति में...हार्दिक स्वागत...विनायक समाधान @ 91654-18344....(INDORE / UJJAIN / DEWAS)..
ऊँ श्री गणेशाय नमो नमः...सादर नमन...एक सामान्य कठिनाई ज्यादातर मित्रों के साथ यह हो सकती है कि अपने निर्धारित कार्य से संतोष प्राप्त नहीं होता है...प्रतिदिन वही कार्य...अर्थात परिवर्तन की कमि... परिणाम यह होता है कि जीवन भार-स्वरुप लगने लगता है...तब हम किसी मनोरंजन में जीवन का रस ढूंढते है...वास्तविकता में हम कार्य और मनोरंजन में एक अंतर स्थापित करने का प्रयास करते है...कार्य वह जो हमें हर हाल में करना ही है और मनोरंजन वह है जो हम को खुश करे तथा जो हम अपनी ख़ुशी से करे....जबकि सत्य यह है कि आनंद तो निर्धारित कार्य की सिद्धि के निमित्त जीवन-शक्ति के उपयोग में ही है...कार्य ही आनंद का स्त्रोत है...यत्र, तत्र, सर्वत्र आनंद का एक-मात्र माध्यम है--'सृजन-श्रम'...निरंतर....और निरंतर शब्द में एक नियमितता हो तो सोने में सुहागा....किसी भी कार्य में नियमित होना भी अपने-आप में चमत्कार से कम नहीं....नकारात्मक की नियमितता 'लत' या बुरी आदत कहला सकती है, परन्तु सकारात्मक हेतु संकल्प अति-आवश्यक हो जाता है...इसमें सहायक है--'संगति'...प्रतिदिन की उत्तम संगति के माध्यम द्वारा प्रतिदिन के निर्धारित कार्य रुचिकर सिद्ध हो सकते है...और आप अनुभव कर सकते है कि प्रत्येक 'विनायक चर्चा' एक सु-संगति का अहसास करवाती है...मात्र कुछ शब्द हमेशा के लिए..अनंत काल तक जीवंत... आमने-सामने...हार्दिक स्वागत...विनायक समाधान @ 91654-18344...(इंदौर / उज्जैन / देवास)
सभी मित्रों को प्रणाम....विनायक समाधान का मुख्य कार्य 'आमने-सामने' की 'विनायक-चर्चा' हो सकती है...बिल्कुल एक चैरिटी शो के समान...पूर्ण स्वैछिक माध्यम कोरे कागज पर मात्र तीन रेखाएं...निःशुल्क तथा निःस्वार्थ...और ख़ुशी है कि गुरु-कृपा तथा मित्रो के स्नेह से वर्ष 2007 से अनवरत सेवारत है...और आप विश्वास करे 'लेखन' का कार्य हरगिज नहीं है...प्रति सप्ताह करीब 25 से तीस मित्रों से चर्चा के बाद यदि कोई सर्व-साधारण अनुभव हासिल होता है तो सर्व-साधारण को ज्ञात हो...सहज रूप से...मात्र इसी उद्देश्य से लेखन प्रारम्भ किया गया...ठीक एक प्रयास से प्रारम्भ 'GRANT ME A PLACE TO STAND, I SHELL LIFT THE EARTH'....इत्र बेचने का कार्य कम लोग करते है, परंतु महकने, महकाने वाले अनेक हो सकते है....प्रत्येक बाधा को चीरते हुए...इत्र की महक की अपेक्षा शब्दों की महक अनंत काल तक हो सकती है...और यह विचार लेखन के समय मन में आ जाता है तो विस्तार में या प्रसार में एक दायित्व का अहसास होने लगता है...अभी तक के अनुभव से यह ज्ञात हुआ कि हम में प्रत्येक में एक स्वाभाविक चाहत या मनोकामना या इच्छा या आकांक्षा हो सकती है...इच्छा बड़ी सामान्य तथा विचित्र है...हम कुछ कहलाने में "वान" शब्द का उपयोग चाहते है...जैसे गुणवान, विद्धवान, रूपवान, धनवान, पहलवान, जवान, धैर्यवान, भाग्यवान् इत्यादि...और यकीन मानिये...'वान' शब्द को हासिल करने के लिए निश्चिन्त रूप से अनुभव के साथ-साथ परिश्रम की आवश्यकता होती है...और सामान्य भक्ति कहती है कि 'वान' शब्द हासिल करने हेतु , मात्र प्रोत्साहन हेतु , मात्र मात्र नकारात्मकता को स्पष्ट इनकार करने हेतु....प्रार्थना का प्रावधान सिर्फ और सिर्फ--"भगवान" के समक्ष हो सकता है...'हैवान' के सामने कदापि नहीं, हरगिज नहीं...असंभव....'हैवान' से भी इस सन्दर्भ चर्चा की जाय तो वह भी इच्छा के लिए मात्र "भगवान" के समक्ष अवश्य प्रार्थना करना चाहेगा...और ईश्वर के समक्ष सहज प्रार्थना हेतु एक माध्यम अवश्य चाहिए....वैसे तो सम्पूर्ण वायुमंडल माध्यम का कार्य करता है, परंतु इस वायुमंडल को अनुभव करने लिए हमारे पास मात्र हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही माध्यम का कार्य करती है...और हमारी ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव कहता है कि "जो उंगली पकड़ कर चलना सिखाये"...हम उसी को श्रद्धा तथा आस्था के साथ "गुरु" शब्द से सम्बोधन करते है...और अनुभव कहता है--वह एक भी है और अनेक भी है...और एक मजेदार पहलु यह कि 'वान' शब्द हासिल करने के पश्चात् दुविधाएं बढ़ती प्रतीत हो सकती है...शीर्ष पर स्थापित रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं...कभी-कभी हमें यह भ्रम हो जाता है कि संसार में हम से ज्यादा सुखी या हम से ज्यादा दुःखी कोई और नहीं हो सकता है, परन्तु यह बात ग़ौरतलब है कि सुख हो या दुःख दोनों उतने ही क्षणिक है, जितना हमारा जीवन....हम सुख या दुःख को गिनने के साथ-साथ परोपकार को भी गिनना शुरू या जारी रख सकते है....'विनायक चर्चा' का यही उदेश्य कि हम सब प्रार्थना करके सहज 'भाग्यवान' बने...धर्म या सम्प्रदाय कोई भी हो, सब का सार एक ही है---"सर्वे भवन्तु सुखिनः".....हार्दिक स्वागत...विनायक समाधान @ 91654-18344...(इंदौर / उज्जैन / देवास)



यह सामान्य बात मात्र इसलिए हो सकती है कि ---*"शिष्य और कुछ नहीं, बल्कि मात्र गुरु की उत्पत्ति है"*----यह सम्पूर्ण चर्चा हम सभी मित्रों का अनुभव हो सकता है, सिर्फ इसलिए कि हम सभी --*गृहस्थ-आश्रम*--का अनुभव रखते है...और अपने 'माता-पिता' को किसी न किसी रूप में 'गुरु' मानते है...और सम्पूर्ण गृहस्थ-आश्रम में प्रत्येक शिष्य को गुरु कहलाने का सौभाग्य प्राप्त होता है...चर्चा अत्यन्त साधारण तथा पूर्ण धार्मिक है...और मजेदार तथ्य यह है कि प्रत्येक धर्म के प्रत्येक मित्र हेतु है...शायद संयुक्त परिवार सम्पूर्ण समाज की शान माना जा सकता है अतः बुजुर्ग लोग टेबलों पर सामान रखतें है, और सामान्य लोग उन्हें अपने उचित स्थान पर रख देते है...यह चर्चा के अनुभव की चर्चा हो सकती है कि बुजुर्गो की एकाग्रता और कार्य-क्षमता घर के अंदर बढ़ जाती है...बस उन्हें भोजन समय पर तथा ससम्मान प्राप्त हो जाये...और यह शुद्ध धार्मिक बात है कि इस उपाय से --"भोजन-दोष"-- पूर्ण सात्विक रूप से, पूर्ण रूपेण निवारण होता है....और इस सात्विक उपाय द्वारा आपके, अपने वायुमंडल में आप स्वयं को एक शब्द सुनाई देता है..."रूतबा"....और यह शब्द मात्र अनुभव के आधार पर सत्य होता है...और सत्य साधारण तथा सामान्य होता है...यही 'विनायक समाधान' का निवेदन है...मात्र "विनायक चर्चा" के माध्यम द्वारा....हार्दिक स्वागत....@....(इंदौर / उज्जैन / देवास)...91654-18344....भले पधारो सा...जय हो, सादर नमन...इस मजेदार पारिवारिक चर्चा का भाग (2) अर्थात गतान्क से आगे.....अर्थात रुतबा बढाने का फार्मूला.....कुछ चित्रो के साथ....हम साथ-साथ है...पिक्चर अभी बाकि है...दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम...यही चमत्कार है...इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है...और हर दाने में सम्मान और संतुष्टि का अमृत हो सकता है...बस पकाने वाला चाहिए...शिष्य पकाता है...और जब गुरु सिखाता है तो "गुरु-आदेश" सर्वोपरि हो सकता है...स्वागत है, गतान्क में...
"Shree Haridra Ganesha siddhi Yantra"...इस पावन तथा सात्विक यंत्र की सुन्दर महिमा मात्र इसलिए कि गणना में यंत्र का महत्त्व ठीक उसी प्रकार है जैसे--"calculation just by calculator"...whenever....wherever & forever....just for "WHAT ELSE ?"...and answer may be "WHATEVER"....और याद रखे हम अपनी उँगलियों का उपयोग अक्सर गणना हेतु करते है...उँगलियों का उपयोग प्रार्थना में भी होता है...यह विशेषता सिर्फ मनुष्य मात्र को 'प्रकृति-प्रदत्त' अर्थात 'GOD-GIFT' है..ठीक उसी प्रकार जैसे चश्मे का उपयोग...स्वयं की आवश्यकता के लिए स्वयं का आविष्कार...मात्र स्वयं के लिए...सिर्फ ज्ञानेन्द्रियों को लाभान्वित...मात्र अध्ययन हेतु...ध्यान हेतु...एकाग्रता हेतु...सावधानी हेतु...मात्र एक "सेतु"...जो ज्ञानेन्द्रियों को अन्य पहलुओं से अवगत करवाये...एक योग करवाये...सुयोग...सफल और सुफल....पूर्ण वैज्ञानिक तथ्य...परछाई का रंग उसकी 'सत्यता' और माध्यम उसकी 'उत्पत्ति' होती है...'Haridra Ganesh Yantra' is used for obtaining blessing of Deva Shree Ganesha for success in removal of obstacles & gaining of knowledge, wit, speech, writing power, money, protection, fame, power, position, success in Tantra. It is also used for removing malefic effects of ATMOSPHERE....अर्थात क्षमा, रक्षा, न्याय, व्यवस्था...अर्थात ऊर्जा का संचय...अर्थात साक्षात् "ईशान"...जय हो...सभी मित्रो को प्रणाम...'चर्चा भक्ति की'...हम सभी भक्ति का अनुभव रखते है...सामान्य रूप से अपने परिवार में...मात्र अपने माता-पिता की भक्ति का अनुभव...सहज रूप से 'गुरु-शिष्य' का अनुभव...कम उम्र से...बचपन से ही...हम यह अनुभव करते है कि भक्ति के क्षेत्र में प्रत्येक पहलु को सुन्दर बनाने का प्रयास होता है...इस विश्वास के साथ कि सुंदरता द्वारा श्रद्धा तथा आस्था को सहज जाग्रत किया जा सकता है...सहज जागृति के लिए सुंदरता को सहज रूप में अनुभव करना भी भक्ति का आवश्यक पहलु माना जाता है...और यह हम सभी जानते है कि सहज सुंदरता ही सदाबहार हो सकती है...और यदि धर्म की बात करते है तो चिरस्थाई धर्म में सिर्फ मन्त्र अर्थात शब्दों को ही सहज सुन्दर माना गया है...और शब्दों को यदि यंत्रो के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो ध्वनि तो नहीं परंतु 'प्रतिध्वनि' अवश्य हो सकती है--"सर्वे भवन्तु सुखिनः"...और हमारे मन से अर्थात ज्ञानेन्द्रियों से एक ध्वनि उत्पन्न होती है--"गुरु कृपा हि केवलम्"...सुंदरता की और अग्रसर होते हुए हम यह अनुभव करते है कि हमारे द्वारा इस सुन्दर, सहज, आसान तथा क्षणिक जीवन में अनेक प्रश्न उत्पन्न किये जाते है...और इतिहास उठा कर देखा जाए तो आज तक प्रत्येक परीक्षा में सिर्फ निर्धारित प्रश्नो के लिए समय तथा अंक प्रत्येक के लिए समान तथा निर्धारित होते है...और इसके विपरीत हम स्वयं से लगातार प्रश्न करते है...यदि यही सब प्रश्न कोई हमसे कोई और करे तो यकीन माने हम नाराज़ हो कर प्रश्नकर्ता को चुप रहने को कह सकते है...परन्तु यह हम स्वयं से नाराज़ नहीं हो सकते है...परन्तु हम अनेक प्रश्न का एक उत्तर या एक प्रश्न के अनेक उत्तर अवश्य जान सकते है...और यह चमत्कार की बात न हो कर मात्र अध्ययन की बात हो सकती है...एक सुदंर और सहज जानकारी यह है कि लगातार प्रश्न करने वाला शनैः-शनैः अयोग्यता की श्रेणी में आ सकता है तो लगातार उत्तर देने वाला योग्यता की श्रेणी में अबश्य आ सकता है...और समय अनुसार प्रश्न और उत्तर में परिवर्तन अवश्य हो सकता है..इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारा स्वयं का अनुभव होता है...'विनायक चर्चा' के माध्यम से यही निवेदन है कि सहज सुंदरता कायम रहे...हार्दिक स्वागत...विनायक समाधान @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)...


जय हो...सादर नमन...मित्रों से चर्चा करते हुए यह अनुभव रहा कि इस सहज अभियान को अनेक मित्रो द्वारा आश्चर्य और अचरज भरी दृष्टि से निहारा गया...कब ? क्यों ? कैसे ? हेतु आयोजित अभियान हेतु यह प्रश्न किया गया---"क्यों ???"....इस क्यों ? का उत्तर सहज हो सकता है, कुछ इस तरह...'हम एक, हमारा एक'...परन्तु 'हम दो, हमारे दो' भी हम सभी मित्रो का सपना या उद्देश्य होता है...इस उद्देश्य हेतु प्रश्न हो सकते है...कब ? क्यों ? कैसे ?....अनेक प्रश्न ||| और इन्ही पहलुओं पर "विनायक चर्चा" में शब्दों का आदान-प्रदान होता है..परन्तु प्रश्न यह कि 'WHY' ?--क्यों ?...इसका साधारण उत्तर या कारण दोनों मान सकते है...'हम एक, हमारा एक'....चर्चा आमने-सामने की...विशुद्ध तथा सात्विक पूर्ण रूपेण व्यक्तिगत...कुछ प्रश्न ऐसे हो सकते है, जिनका उत्तर हम सुनिश्चिंत नहीं कर पाते है...तब असमंजस उत्पन्न होता है...तब साहित्य की अपेक्षा अनुभव से प्रकाश डाला जा सकता है...वर्तमान में, इस तेज-रफ़्तार में इतने परिवर्तन होते है कि हम स्वयं सोच-सोच कर परेशान हो सकते है...बेवजह ताबड़-तोड़ जानकारियां...तब इच्छा होती है कि कोई अच्छी सी पुस्तक लेकर जंगल में अध्ययन हेतु चले जाना चाहिए.... और गड़रिये से मित्रता ऐसी हुई कि उसने अनपढ़ होते हुए भी पुस्तक लिखना सीखा दिया...मात्र साथ रहने का अनुभव...एक से अनेक का प्रसार...एक से एक की शर्त या नियम...प्रार्थना द्वारा अन्तर्मन् से प्रतिध्वनि होती है...'हम एक, हमारा एक'...आमने-सामने एक ऐसा अभियान हो सकता है, जिसमे हमको यह पूर्ण स्वतंत्रता हो कि हम अपना पक्ष रख सकें...और इस विश्वास के साथ कि सम्पूर्ण चर्चा-क्रम में सकारात्मक प्रोत्साहन का अहसास होगा...हालाँकि कुछ या अनेक घटनाक्रम इस प्रकार होते है कि हम हतप्रत रह जाते है...इस सम्पूर्ण जीवन में सब कुछ जानना लगभग असम्भव है...और इस रहस्य पर पर्दा डालने के लिए सहज नियम तथा संयम निर्धारित हो चुके है...समय का एक ही नाम है--"काल"....और अनेक नामों से पुकारा जाता है...भूत काल, वर्तमान काल, भविष्य काल....और समय को मात्र नियम तथा संयम से ही बांधा जा सकता है...और यदि यह हो जाये तो प्रेम से कहिये..."जय श्री महाकाल"...'हर हर महादेव'...'ॐ नमः शिवाय्'...'भोले नाथ, सबके साथ'...जय हो...हार्दिक स्वागत...विपक्ष के लिए तालियों की गूंज से हताश होने की अपेक्षा निष्पक्ष होना आनंद-दायक हो सकता है..."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)'



जय हो...यदि यात्रा लंबी हो, तब किसी वृक्ष की छाँव में विश्राम की इच्छा प्रत्येक की हो सकती है...इस विश्राम की अवधि में न हम वृक्ष से चर्चा करते है, ना ही वृक्ष हमसे चर्चा करता है....बस एक आनंद का अनुभव होता है...इस आनंद में तब ना हार का डर होता है, ना ही जीत का लालच होता है...'विनायक चर्चा ' में प्रस्तुत विचार मात्र किताबी ज्ञान हरगिज नहीं है...प्रत्येक पुस्तक का एक COPYRIGHT या सर्वाधिकार सुरक्षित हो सकता है..परन्तु अनुभव तो प्रत्येक की अपनी धरोहर या सम्पदा हो सकता है...वर्ष 2007 से वर्तमान तक विभिन्न अनुभव हेतु विभिन्न मित्रों से मुलाकात, आमने-सामने चर्चा द्वारा निरंतर जारी है....और आगे भी जारी रहेगी...समस्त अनुभव मात्र शब्दों के द्वारा मुक्त प्रसार हेतु...प्रपंच मुक्त....समस्त मित्रो के मध्य सहज प्रस्तुत...मात्र इस सन्देश के साथ कि स्वयं की लापरवाही हो तो स्वयं पर शंका उचित नहीं...प्रत्येक शिष्य को भविष्य में गुरु के रूप में सम्मान प्राप्त करने का सहज अधिकार होता है...हम गैरेज की वर्क-शॉप में अक्सर कम उम्र के लड़कों को कार्य करते हुए देखते है, जिन्हें 'बारिक' या 'छोटू' के नाम से पुकारा जाता है...वे मात्र 'सहायक' की भूमिका निभाते है...DO AS DIRECTED...परन्तु निरंतर अनुभव से वे भी एक दिन 'उस्ताद' की पदवी से पुकारे जा सकते है...शर्त यह कि कुशल सहायक सिद्ध हो...मात्र शून्य से एक तक की यात्रा...धैर्य के साथ...और शिष्य गुरु के सम्मान की और लगातार अग्रसर...हार्दिक स्वागत..."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)

जय हो...सादर नमन...जय गजानन्द, सदा रहे आनन्द....जय श्री कृष्ण...जय सीताराम....जय श्री महाकाल...'विनायक चर्चा'....सहज हार्दिक स्वागत...सम्पूर्ण अभियान के पावन माध्यम प्रभु श्री..."विनायक"....मंगलमूर्ति, बुद्धिदाता....पूर्ण सहज...पूर्ण सात्विक....विनायक समाधान....विनायक रेखाएं...विनायक शब्द....विनायक चर्चा...विनायक जिज्ञासा....विनायक प्रश्न...विनायक उत्तर...विनायक गणना...विनायक उपासना...विनायक यंत्र...विनायक निमंत्रण...विनायक मित्र...विनायक वायुमंडल....विनायक उपाय...विनायक गति...विनायक उन्नति...विनायक अनुभूति...विनायक अहसास...विनायक एकांत...विनायक अध्ययन...विनायक आनंद...विनायक संतुष्टि..विनायक मार्गदर्शन...विनायक प्रोत्साहन..विनायक प्रार्थना....और इसी तारतम्य में विनायक अभियान हेतु उपरोक्त सभी का विनायक क्रमचय-संचय....निरंतर...वर्ष 2007 से...15000 से भी ज्यादा मित्रो से सहज वार्तालाप...अर्थात विनायक पुनरावृत्ति....’विनायक चर्चा’...विनायक शुरुआत अर्थात अंत तक विनायक आनंद की कामना...इसी विनायक कामना की पूर्ति हेतु विनायक प्रार्थना....एक मात्र मुख्य विनायक आधार--'गुरु कृपा हि केवलम्' ...एकमात्र विनायक उद्देश्य--'सर्वे भवन्तु सुखिनः'....हार्दिक स्वागत..."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)


जय हो...सादर नमन....'चर्चा श्रृंगार के अनुभव की'...सहज को जानने का अवसर...मात्र धर्म द्वारा...जब तक धर्म मनुष्य के आचरण तथा व्यक्तिगत नैतिकता से जुड़ा हुआ है, तब तक धर्म सकारात्मक भूमिका निभाता रहता है...मगर जैसे ही अन्धविश्वास का समावेश होता है, धर्म अपनी उपयोगिता खोने लगता है...अन्धविश्वास अर्थात हम स्वयं हमारे ही आश्चर्य को अनोखे ढंग से देखने लगते है और उसमे डर या भय का समावेश कर देते है...धर्म को चिर-स्थायी अर्थात अनंत माना गया है...हम में से प्रत्येक तथा हर एक किसी न किसी रूप में या किसी परिस्तिथिवश धर्म से परिचय करते रहते है...और जब तक हम सकारात्मक अनुभव करते है,तब तक धर्म से प्रश्न पूछने की आवश्यकता नही होती परन्तु विपरीत परिस्तिथियों में अनेक प्रश्न उत्पन्न हो सकते है...तब हम अपनी योग्यता से परे भी प्रश्न सोच सकते है...तब धर्म का एक-एक शब्द, एक-एक पल...कतरा-कतरा...स्पष्ट कहता है...सदैव सम रहिये...सहज...सम रस... ना हार का डर, ना जीत का लालच...धर्म का एक ही उद्देश्य है...समस्त परकोटों का सहज सम्मिश्रण अर्थात क्रमचय-संचय करे....उच्च, समकक्ष, मध्यम.... उत्तम सामाजिकता धर्म का परिणाम हो सकता है...धर्म को सहज मानने के लिए प्रकृति को धर्म माना गया है...और प्रकृति को सहज मानने के लिए पंच-तत्व स्वयं को प्रकृति मानते है..."सर्वे भवन्तु सुखिनः" मात्र पंच-तत्व को समर्पित प्रार्थना प्रतीत होती है..."गुरु-कृपा" तो हम सहज प्राप्त कर सकते है...माता-पिता से तथा अन्य किसी भी सम्माननीय मित्र से...धर्म के अनुसार यह सहज सौभाग्य कहलाता है...शृंगार हम अपनी सुंदरता निखारने के लिए करते है, न कि अपनी कमजोरिया छुपाने के लिए....तब हम बिना शृंगार के भी सुन्दर लग सकते है...क्योंकि शृंगार हमेशा अग्रसर होता रहता है...एक ढलान की और....मात्र विश्राम के लिए...विश्वाश के साथ...मात्र अनुभव का क्रमचय तथा संचय...संकल्पो की उड़ान आजादी के साथ सम्भव है...लापरवाही के साथ हरगिज नहीं...यही है...'विनायक-चर्चा'...आमने-सामने...हार्दिक स्वागत...."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)...




जय हो...सादर नमन....”अनेकान्त” अर्थात ‘अनेक’ और ‘अन्त’...अर्थात एक से अधिक...गुण अथवा परिणाम के साथ...अर्थात आस्ति-नास्ति...शब्दों का माया-जाल मात्र...तर्कों से सत्य सिद्ध करने का सरलतम उपाय या प्रयास...ऐसा ‘भी’ अथवा वैसा ‘ही’ का आवरण...भाषा और विद्वता के विभिन्न प्रयोगों में अनेकान्त लगभग नगण्य माना जाने लगता है...यही नगण्य संशयवाद का प्रतिरोध करता है...क्लिष्टता विद्वान की अनिवार्यता हरगिज नहीं हो सकती है...असीम संभावनाओं का प्रकाशन धार्मिक आवरण में लगभग सुरक्षित महसूस होता है...ना हार का डर...ना जीत का लालच... शृंगार हम अपनी सुंदरता निखारने के लिए करते है, न कि अपनी कमजोरिया छुपाने के लिए....तब हम बिना शृंगार के भी सुन्दर लग सकते है...क्योंकि शृंगार हमेशा अग्रसर होता रहता है...एक ढलान की और....मात्र विश्राम के लिए...विश्वाश के साथ...मात्र अनुभव का क्रमचय तथा संचय...संकल्पो की उड़ान आजादी के साथ सम्भव है...लापरवाही के साथ हरगिज नहीं...यही है...'विनायक-चर्चा'...आमने-सामने...हार्दिक स्वागत...."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)....
.जय हो...सादर नमन...”चर्चा ‘ईश्वर’ की”...निर्धारित कुछ भी नहीं है...परन्तु जो घटित हो चूका है...उसे निर्धारित कहा जा सकता है...क्योंकि घटित होने के प्रमाण सत्य हो सकते है...परन्तु जो घटने वाला है, उसकी गणना किस प्रकार हो ?...यदि हम उसे निर्धारित कहते है तो किसी भी निर्धारण के लिए एक व्यवस्था या प्रणाली या गणना या अनुभव का होना अति-आवश्यक होता है...प्रत्येक निर्धारण एक सत्ता द्वारा होता है...और किसी भी सत्ताधारी को “GOD” से पुकारा जा सकता है...नियमानुसार ‘GOVERNOR OF DESTINY’...विधि का निर्माता...निर्धारित अनुकूलता...वह जो सबका निर्धारण करता है...और स्वयं के निर्धारण की आजादी सहजता से प्रत्येक को दी है...कभी किसी को खुल कर नहीं बताया कि मै कौन हूँ ?...वेदों में किसी एक ईश्वर की उपासना नहीं हो सकती है...अनेक स्तुतियाँ इसका साक्षात् प्रमाण है...और स्तुतियाँ मुक्त-गान की अनिवार्यता से बंधी होती है...प्रकृति को ईश्वर मानते हुए, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, जल, वायु, धरती, आकाश आदि की भी स्तुतियाँ विद्यमान है...और सत्ता में या प्रशासन में नियम ईश्वर तुल्य माने जा सकते है...और मानव मात्र को यह स्वतंत्रता या बाध्यता है कि वह अपने सम्प्रदाय या संस्कार अनुसार ईश्वर को किसी भी नाम से पुकारे...किसी भी माध्यम का प्रयोग या उपयोग करे...मात्र सहज आनन्द के लिए...प्रपंच कदापि प्रभावशाली नहीं हो सकते है...बस आस्था तथा श्रध्दा का सम्मान हो...पूर्ण सहज रूप से...ईश्वर मात्र उत्तम व्यक्तित्व का नाम अथवा रूप हो सकता है..जो सदैव मात्र सकारात्मक का अनुसरण करने की प्रेरणा देता है...असीम संभावनाओं का प्रकाशन धार्मिक आवरण में लगभग सुरक्षित महसूस होता है...ना हार का डर...ना जीत का लालच... शृंगार हम अपनी सुंदरता निखारने के लिए करते है, न कि अपनी कमजोरिया छुपाने के लिए...संकल्पो की उड़ान आजादी के साथ सम्भव है...लापरवाही के साथ हरगिज नहीं...यही है...'विनायक-चर्चा'...हार्दिक स्वागत...मात्र अनुभव का क्रमचय तथा संचय....आमने-सामने...."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)....


जय हो...'विनायक-चर्चा'...’मन की चर्चा’...जो पैदा होता है, वह जीता भी है तथा मृत्यु भी सुनिश्चिन्त है...इसी दौरान शरीर, मन तथा चेतना के रूप में तीन उपलब्धियाँ प्राप्त होती है...और समस्त प्राणियों में मानव मन सर्वाधिक विकसित माना गया है...यह मन सम्पूर्ण विचारों की जड़ माना जाता है...यह मन ईश्वर का निर्माण करता है...मन सभी जिज्ञासाओं को उत्पन्न करता है...मन ही समस्त जिज्ञासाओं का समाधान करता है...बुद्धि, चित्त, प्रज्ञा, ज्ञान, अज्ञान यह सभी मन के विभिन्न रूप हो सकते है...अर्थात मन ही आत्मा तथा शरीर के मध्य सम्बन्ध का कारक माना जाता है...सुख-दुःख मात्र शरीर और मन के हो सकते है, आत्मा के हरगिज नहीं...आत्मा तो सिर्फ आनन्द को पहचानती है...और आनन्द के लिए मन का शान्त होना अति-आवश्यक है...समस्त आकुलता और विकल्प मन की ही देन है, अतः मन पर नियंत्रण जरुरी है...मन पर अंकुश लगाने हेतु अनेक सहज विधियाँ सहज उपलब्ध है...वशिष्ठ की योग क्रियाएँ, गीता के तीनो मार्ग-ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग...बुद्ध के अष्टांग योग, महावीर के दस धर्म, जीसस का बलिदान, मोहम्मद की भक्ति, गुरु-गोविन्द का शौर्य इत्यादि...सभी विधियाँ एक ही सन्देश देती है...”इच्छायें मन के रथ पर सवार हो कर दुखो का कारण बनती है”...अस्थाई सुख-दुःख तथा चिर-स्थाई आनन्द में अन्तर हम जान सकते है, बस हमें सहज जागरूकता चाहिए...एवं इसके सहज माध्यम हो सकते है...सहज भक्ति, सहज ज्ञान, सहज भक्ति, सहज श्रध्दा, सहज आस्था.. क्लिष्टता विद्वान की अनिवार्यता हरगिज नहीं हो सकती है...असीम संभावनाओं का प्रकाशन धार्मिक आवरण में लगभग सुरक्षित महसूस होता है...ना हार का डर...ना जीत का लालच... शृंगार हम अपनी सुंदरता निखारने के लिए करते है, न कि अपनी कमजोरिया छुपाने के लिए...हार्दिक स्वागत...मात्र अनुभव का क्रमचय तथा संचय....आमने-सामने...."विनायक समाधान" @ 91654-18344...(इंदौर/उज्जैन/देवास)..
जय हो...प्रार्थना करने से पूर्व ‘प्रार्थना’ की महत्वपूर्ण चर्चा....”विनायक चर्चा”...प्रार्थना ही किसी भी सात्विक कार्य का मुख्य आधार होती है...प्रार्थना का मुख्य कार्य है—मन या मष्तिष्क में नए-नए विचार उत्पन्न करना...विचार हमेशा सजीव माने जा सकते है...जब ये उत्सर्जित होने लगते है तो वास्तविकता जन्म ले कर घटित होने लगती है...और निष्कर्ष या परिणाम सफलता के रूप में साक्षात्कार करते है...प्रकृति या ईश्वर ने मानव मस्तिष्क को अपार उर्जा तथा योग्यता दी है...और इन शक्तियों को प्रयोग में लाने हेतु हम प्रार्थना का उपयोग करते है...और जब प्रार्थना प्रतिदिन का नियम हो जाती है तो लय-ताल अर्थात स्वर-संगम का अनुभव संभव है...प्रत्येक कार्य में प्रकृति या ईश्वर के साथ हमारी सह्भागिदारिता या साझेदारी हो सकती है...अच्छा कार्य करने के लिए हम सभी ज्यादा योग्यता अर्जित करना चाहते है...और हमारी मदद सिर्फ हमारी प्रकृति या हमारा ईश्वर ही कर सकता है...हमारी शक्ति...हमारी प्रकृति...हमारा ईश्वर, हमारे भीतर है...इसी शक्ति से हम अपने सपने साकार करने की कोशिश करते है...इसी शक्ति के जागरण हेतु हम प्रार्थना करते है....अनुभव के विभिन्न स्तरों द्वारा इस आन्तरिक शक्ति का अध्ययन संभव है...और जब हम इस शक्ति से सम्बन्ध कायम करने की कोशिश करते है तो स्वयं को अंतर्दृष्टि तथा बुधिमत्ता के पथ पर महसूस करते है...और जब गुरु-कृपा होती है तो एक शब्द, एक प्रश्न, एक चित्र, एक पुस्तक, एक कविता, एक चर्चा, एक प्रार्थना या मात्र एक दृष्टि ही पर्याप्त माध्यम हो सकती है...और एक नई शुरुआत या कोई फैसला या कोई निर्णय हो सकता है...जिसका हमको पता चले या ना चले, कोई फर्क नहीं पड़ता...ना हार का डर, ना जीत का लालच....शायद यही है-प्रकृति का नियम...इसी सहज नियम का अनुसरण का नाम है...’विनायक-चर्चा’...प्रार्थना समस्त प्रलोभनों या प्रपंच पर विजय दिलाती है....'विनायक चर्चा' का यही उदेश्य कि हम सब प्रार्थना करके सहज 'भाग्यवान' बने...धर्म या सम्प्रदाय कोई भी हो, सब का सार एक ही है---"सर्वे भवन्तु सुखिनः".....हार्दिक स्वागत...विनायक समाधान @ 91654-18344...(इंदौर / उज्जैन / देवास)…