तस्करी मतलब गलत माल को गलत तरीके से इधर-उधर करना....किन्तु सही माल को
गलत तरीके से इधर से उधर करते है तो भी आपत्ति जायज़ है....और किसी बात को
इधर से उधर ले जाने मे सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी....तब नुक्सान यह कि
प्रतिष्ठा घटते चली जाती है....कब, किसको...क्या कहना है....जवाबदारी तो
बनती है.....मालवा मे कहावत है कि 'एक की दो' लगाने वाले लोग एक-दो कदम से
ज्यादा चलने की क्षमता नहीं रखते है.....और अगर ऐसे में किसी कच्चे-कान
वाले से दोस्ती हो जाये तो दोनो के साथ दोनो संभावनाये....पक्षाघात
तथा पक्षद्रोह....और ये वो लोग हो सकते है जिनका नियम हो सकता है....कानून
ना कायदा....जी-हुजूरी मे फायदा....तब इस फायदे का नुक्सान यह कि ज्ञान
पूर्णतः सीमित....सिर्फ सुनने की सुविधा, कहने वाला तो कोई और ही होता
ही....सिर्फ कहा-सुनी...और 'कायदे की बात तथा फायदे की बात' यह कि यदि
प्रभु-प्रेम को आदेश मे लिया जाये तो जी-हुजूरी से हमेशा के लिये मुक्ति
पक्की....तब कहने वाले हम और सुनने वाला एक....खुद-खुदा....वह सिवाय सुनने
के अलावा कोई काम नही करता....वह भी खुली आँखों से.. ईश्वर के पास समय ही
समय...किसी भी मूर्ति की आँखे बंद नहीं....भला मूर्तियाँ अपनी आँखे बंद
क्यों और कैसे करे ?....तब सिर्फ आँखों-देखी....तब प्रभु-प्रेम मन की आँखों
से भी सम्भव है...भगवान को इंसान ने हमेशा सुरक्षा-कवच माना है....चाहे
ताबीज हो या मंगल-सूत्र....इबादत मे आयत तो जरुरी है....और धर्म मे भगवान्
की मान्यता कुल-देवता से शुरू होती है....ईष्ट-देव के रूप मे....शेंदुर लाल
चढायो, अच्छा गज-मुख को....सुख मे सुमिरन ना किया....दु:ख में करते
याद.....तब हैरान, परेशान दास की....कौन सुने फरियाद....और सुनने
वाला....दाता....सब नी राखा थाह....जिसके दामन मे करुणा अथाह....सच्चे
बादशाह की मोहब्बत बेपनाह....आखिर वही है बड़े जिगरे वाला.
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